________________ विभाग] नमस्कारमाहात्म्यम् यस्य प्रमाद-मिथ्यात्व-रागाद्याश्छलवीक्षिणः। कुप्रातिवेश्मिकायन्ते, कथं तस्यैकतासुखम् 1 // 32 // य एभिरुज्झितः सम्यक्, सजनेऽपि स एककः।। जनाऽऽपूर्णेऽपि नगरे, यथा वैदेशिका पुमान् // 33 // एभिस्तु सहितो योगी, मुधैकाकित्वमश्नुते / वण्ठः शठश्वरश्चौरः, किमु भ्राम्यति नैककः 1 // 34 // क्षीरं क्षीरं नीरं नीरं, दीपो दीपं सुधा सुधाम् / यथा सङ्गत्य लभते, तथैकत्वं मुनिर्मुनिम् // 35 // पुण्य-पाप-क्षयान्मुक्ते, केवले परमात्मनि / अनाहारतया नित्यं, सत्यमैक्यं प्रतिष्ठितम् // 36 // यद्वा श्रुतेज नाऽनुज्ञा, निषेधो वाऽस्ति सर्वथा / सम्यगाय-व्ययौ ज्ञात्वा, यतन्ते यति-सत्तमाः // 37 // हूयते न दीयते न, न तप्यते न जप्यते / निष्क्रियैः साधुभिरहो साध्यते परमं पदम् // 38 // छळने ज जोनारा प्रमाद, मिथ्यात्व अने रागादिक आन्तर शत्रुओ जेने दुष्ट पाडोशी जेवा 15 थाय छे, तेने एकाकीपणानुं सुख शी रीते होय ? // 32 // . जेम मनुष्यथी भरपूर एवा नगरमां पण परदेशी माणस (कोईनी साथे संबंधवाळो नहीं होवाथी) एकलो ज़ कहेवाय छे, तेम जे पुरुष उपर कहेला दोषोथी रहित होय तो, ते जनसमूहमा रह्यो होय तो पण एकाकी ज छे / परंतु आ सर्व-संज्ञा, दुष्ट लेश्या, विकथा, इन्द्रिय, कषाय, दुष्टयोग, मिथ्यात्व अने रागादिथी सहित एवा योगीनु एकाकीपणुं फोगट छ / वंठ, धूर्त, गुप्तचर के चोर ए शुं एकलो नथी 20 भमतो? // 33-34 // दूध-दूध, पाणी-पाणी, दीप-दीप अने अमृत-अमृतनी जेम मुनि-मुनि पण साथे मळीने एकताने पामे छे॥३५॥ ___पुण्य पापनो क्षय थवाथी मुक्त अने केवल एवा परमात्माने विषे अनाहारपणा वडे सदा साचुं एकाकीपणुं प्रतिष्ठित छे // 36 // 25 अथवा तो अहीं श्री जिनवचनने विषे एकांते विधि के निषेध नथी, तेथी श्रेष्ठ मुनिओ सारी रीते लाभालाभने जाणीने प्रवर्ते छे // 37 // शैलेशीगत निष्क्रिय साधुओ वडे होम करातो नथी, दान देवातुं नथी, तप तपातो नथी अने 'जप जपातो नथी, छतां पण परमपद सधाय छे ते आश्चर्य छे // 38 // 1. ०रुच्छितः क.। 2. ०त्ववनित्यं, ख. ग. घ. हि.।