________________ नमस्कार स्वाध्याय [संस्कृत जिन-प्रत्येकबुद्धादि-दृष्टान्तानकतां श्रयेत् / न चर्म-चक्षुषां युक्तं, स्पर्द्धितुं ज्ञानदृष्टिभिः // 25 // चातुर्गतिक-संसारे, भ्राम्यतां सर्वजन्मिनाम् / पुण्य-पाप-सहायत्वान्नैकत्वं घटतेऽथवा // 26 // संज्ञा-कुलेश्या-विकथाश्चर्चिका इव चापलम् / यस्याऽन्तर्धाम कुर्वन्ति, स एकाकी कथं भवेत् 1 // 27 // शाकिनीवदविरति-संज्ञा नाटयप्रिया सदा। ग्रासाय यतते यस्य, स एकाकी कथं भवेत् 1 // 28 // पञ्चाग्निवदसन्तुष्टं, यस्येन्द्रियकुटुम्बकम् / देहं दहत्यसन्देह, स एकाकी कथं भवेत् 1 // 29 // दायादा इव दुर्दान्ताः, कषायाः क्षणमप्यहो / यद्विग्रहं न मुञ्चन्ति, कथं तस्यैकतासुखम् ? // 30 // स्वमनोवाक्तनूत्थानाः, कुव्यापाराः कुपुत्रवत् / भ्रंशाय यस्य यस्यन्ति, कथं तस्यैकतासुखम् 1 // 31 // 15 'जिन, प्रत्येकबुद्ध वगेरे एकला विचरे छे,' एवा दृष्टांतथी बीजा मुनिओए. एकाकीपणानो आश्रय न करवो जोईए; कारण के ज्ञानचक्षुवाळाओनी साथे चर्मचक्षुवाळाओए स्पर्धा करवी ए योग्य नथी // 25 // __ अथवा तो चार गतिरूप संसारमा परिभ्रमण करनारा सर्व प्राणीओने पुण्य अने पाप साथे होवाथी तेओमां एकलापणुं घटतुं नथी // 26 // चोवट करनारी स्त्रीओनी जेम आहारादि संज्ञाओ, कृष्णलेश्या वगेरे दुष्ट लेश्याओ अने स्त्रीकथा 20 वगेरे विकथाओ जेमना अंतःकरणरूप गृहमां चपलताने उत्पन्न करे छे ते एकाकी कई रीतिए थई शके? // 27 // डाकणनी जेम अविरति नामनी नटडी जेने कोळिओ करी जवा सदा मथती होय, ते एकाकी केम थई शके ? // 28 // पंचाग्निनी जेम असंतुष्ट एवं पांच इन्द्रियोरूपी कुटुम्ब जेना शरीरने बाळ्या करे छे, ते एकलो 25 संदेहरहितपणे केम रही शके? // 29 // संपत्तिमां भाग मागनारां सगांवहालांओ दुर्दान्त (दुःखे करीने दबावी शकाय तेवा) कषायो क्षण वार पण जेना शरीरने छोडता नथी, तेने एकाकीपणानुं सुख शी रीते होय ? // 30 // पोताना मन, वचन अने कायाथी उत्पन्न थयेला अशुभ व्यापारो स्वेच्छाचारी पुत्रनी जेम जेना नाश माटे प्रयत्न करी रह्या छे तेने एकाकीपणानुं सुख शी रीते होय ! // 31 // 1. मज्झानार्या प्रिया ख., रथानार्या प्रिया हि. /