________________ 154 [संस्कृत नमस्कार स्वाध्याय निःशङ्कमैक्यं जनयोशित्वादुभयोरपि / / एकस्यापि सहस्रत्वं, दुरन्तमवशात्मनः // 12 // नेत्रवत्समसङ्कोच-विस्तार-स्वम-जागरौ। द्वौ दर्शनाय कल्पेते, नैकः सम्पूर्णकृत्यकृत् // 13 // एको विडम्बनापात्रं, एकः स्वार्थाय न क्षमः। एकस्य नहि विश्वासो, लोके लोकोत्तरेऽपि वा // 14 // भावना-ध्यान-निर्णीत-तत्त्व-लीनान्तरात्मनः। ऐक्यं न लक्ष-मध्येऽपि, निर्ममस्य विनश्यति // 15 // साम्यामृतोर्मि-तृप्तानां, सारासार-विवेचिनाम् / साधूनां भावशुद्धानां, स्वार्थेऽपि क्वाऽथवा ऑतिः // 16 // मनःस्थैर्यानिश्चलानां, वृक्षादिवदकर्मणाम् / वृन्दमृषीणामेकत्र, भावना-वल्लि-मण्डपः // 17 // इन्द्रियो अने मनने वश राखनारा होय ते बे साधुओमां पण एकत्व निःशंकपणे घटी शके छे, कारण के—बन्ने जितेन्द्रिय होवाथी एक ज विचारना होय छे, परन्तु इन्द्रियो अने मनने परवश बनेलो 15 एकपण होय तो पण ते दुःखदायक हजार जेवो छे // 12 // नेत्रनी जेम संकोच अने विस्तारमा तथा निद्रा अने जाप्रतिमां सरखे सरखी स्थितिवाळा बे साधुओ सम्यग् दर्शनने माटे समर्थ बने छे, परंतु एकलो साधु संपूर्णपणे कार्य करी शकतो नथी। कारण केएकलो माणस विडम्बनानुं स्थान बने छे, एकलो माणस स्वार्थसिद्धि माटे पण असमर्थ बने छे, अने एकला माणसनो लोकमां तथा लोकोत्तर जैन शासनमां पण कोई विश्वास करतुं नथी // 13-14 // 20 भावना तथा ध्यान द्वारा निर्णीत करेला तत्त्वमा लीन छे अन्तरात्मा जेनो एवा अने ममता विनाना साधुनुं एकाकीपणुं लाख माणसोनी अंदर रहेवा छतां पण नाश पामतुं नथी // 15 // साम्य (समता) रूप अमृतनी ऊर्मिओथी तृप्त, सार अने असारनो विवेक करनारा अने निर्मल आशयवाळा साधुओ घणा होय तो पण तेमने पोतपोताना कार्यमां कोई पण जातनी हरकत आवती नथी॥१६॥ 25 मननी स्थिरतावडे निश्चल अने वृक्ष आदिनी जेम अकर्म (अक्रिय, अनाश्रव) एवा साधुओना समूहनो एकत्रवास ए भावनारूपी लतानो मंडप छे // 17 // 1. विवेकिनाम् हि०। 2. सिद्धानां ख. ग. घ. हि.। 3. क्षितिः क.। . * ज्यारे मन अध्यात्मवडे आत्मरमणतामा सविशेष पुष्ट थाय छे त्यारे ते भावना नामनो योग कहेवाय छे। + ज्यारे चित्त शुभ विषयने ज अवलंबीने स्थिर दीपकनी जेम प्रकाशमान थई सूक्ष्म बोधवाळ बने छे त्यारे 30 ते ध्यान नामनो योग कहेवाय छ।