________________ विभाग] नमस्कारमाहात्म्यम् एकान्ते रमते स्वैरं, मृगेण मनसा समम् / मूलोत्तरगुण-ग्रामाऽऽरामेषु भगवान् मुनिः॥५॥ एकत्वं यदिदं साधौ, संविग्ने श्रुतपारगे। तत्साक्षाद् दक्षिणावर्ते, शङ्ख सिद्ध-सरिज्जलम् // 6 // एको न क्रोध-विधुरो, नैको मानं तनोति वा / एको न दम्भ-संरम्भी, तृष्णा मुष्णाति नैककम् // 7 // एकत्व-तत्त्व-नियूंढ-सचा राजर्षि-कुञ्जराः / ययुः प्रत्येकबुद्धाः श्रीनमि-प्रभृतयः शिवम् // 8 // सर्वथा ज्ञात-तत्त्वानां, सदा संविग्न-चेतसाम् / सतामेकाकिता सम्यक्, समतामृत-सारणिः // 9 // व्ववेदैदंयुगीनौ तु, द्वौ द्वौ सङ्घाटक-स्थितौ / . * स्वार्थ-संसाधको स्यातां, बतिनौ वशिनौ यदि // 10 // . व्व-संज्ञयेत्यवतय॑मैतिचं यद् द्वयोर्द्वयोः / वचोवक्षोवपुर्वृत्त्या, वशिनोतिनोः शिवम् // 11 // ___ एकान्तमां मुनि भगवान् मूलोत्तर गुणना समूहरूप बगीचामां मनरूपी मृगनी साथे स्वेच्छापूर्वक 15 क्रीडा करे. छे // 5 // संविग्न अने श्रुतना पारगामी गीतार्थ साधुने विषे जे एकाकीपणुं छे, ते साक्षात् दक्षिणावर्त शंखमां गंगा नदीना पाणी जेवु छ / संविग्न अने गीतार्थ एवो एकाकी साधु क्रोध वडे विह्वळ थतो नथी, मान करतो नथी, माया-कपट करतो नथी अने तृष्णा एने लूटती नथी // 6-7 // राजर्षिओमां श्रेष्ठ नमिराजर्षि वगेरे प्रत्येकबुद्धो एकत्व भावना वडे पोताना पराक्रमने खीलवीने 20 मोक्षने पाम्या // 8 // - सर्व प्रकारे जीवादि तत्त्वोने जाणनारा अने सदा वैराग्यवासित चित्तवाळा गीतार्थ साधुओर्नु एकाकीपणुं श्रेष्ठ समतारूपी अमृतनी नीक जेवू छे // 9 // व अक्षरनी जेम संघाटक–बे बे साथे विचरनारा आ युगना साधुओ जो तेओ इन्द्रियो अने मनने वश करनारा होय तो ज स्वार्थने (स्वप्रयोजन मोक्षने) साधनारा थाय छे // 10 // 25 .. 'व्व' संज्ञावडे ए गुरुपरंपरागत रहस्य अनुमित थाय छे के जितेंद्रिय एवा बेबे साधुओर्नु परस्परना मन, वचन अने कायाना शुभ योगो वडे कल्याण थाय छे, परस्परना शुभयोगो परस्परने सहायक बने छे॥ 11 // 1. सारा रा. ग. हि.। 2. समम् क.। 3. सर्वदैवयुगीनौ क.। 4. सर्वज्ञावित्यवितळ० क.