________________ 150 [संस्कृत नमस्कार स्वाध्याय यथास्थितार्थ-प्रथको, यतमानो यमादिषु / यजमानः स्वात्मयचं, यतीन्द्रो मे सदा गतिः॥४॥ रिपौ मित्रे सुख दुःखे, रिष्टे शिष्टे शिवे भवे / रिक्थे नैःस्व्ये समः सम्यक्, स्वामी संयमिनां मतः // 5 // या काचिदनघा सिद्धिर्या काचिल्लब्धिरुज्ज्वला / वृणुते सा स्वयं सूरिं, भ्रमरीव सरोरुहम् // 6 // ''कारोज दिशत्येवं, त्रिरेखो व्योम-चूलिकः / त्रिवर्ग-समता-युक्ताः, स्युः शिरोमणयः सताम् // 7 // धर्मार्थ-कामा यदि वा, मित्रोदासीन-शत्रवः / यद्वा राग-द्वेष-मोहास्त्रिवर्गः समुदाहृतः॥८॥ सप्त-तत्त्वाम्बुज-वनी-सप्तसप्ति-विभा-निभा। सप्ताक्षरी तृतीयेयं, सप्तावनि-तमो ह्रियात् // 9 // इति तृतीयः प्रकाशः समाप्तः॥ 10 यथास्थित अर्थनी प्ररूपणा करनारा, यम-नियमादिना पालनमा यत्न करनारा अने आत्मरूप 15 यज्ञनुं यजनपूजन करनारा एवा आचार्य भगवान् मने सदा शरणरूप हो // 4 // रिपु-शत्रु के मित्र, सुख के दुःख, दुर्जन के सज्जन, मोक्ष के संसार तथा धनाढ्य के दरिद्रीने विषे संयमीओना स्वामी आचार्य अत्यंत समदृष्टिवाळा होय छे // 5 // या-जे कोई पवित्र सिद्धि छे अने जे कोई उज्ज्वल लब्धि छे ते सर्व, जेम भमरी कमळने वरे तेम, आचार्यने स्वयं वरे छे // 6 // 20 'णं' अक्षर त्रण रेखावाळो अने माथे अनुस्वारवाळो छे, ए एम बतावे छे के त्रिवर्गमां* समतावाळा पुरुषो ज सज्जनोमां शिरोमणि बने छे // 7 // धर्म, अर्थ अने काम अथवा मित्र, शत्रु अने उदासीन अथवा राग, द्वेष अने मोहने त्रिवर्ग कहेवाय छे॥८॥ जीवादि सात तत्त्वरूप कमळना वनने विकसित करवामां सूर्यना किरण जेवा आ 'नमो 25 आयरियाणं' त्रीजा पदना सात अक्षरो सात पृथ्वीना (सात नरकना) दुःखनो नाश करो // 9 // 1. रैक्थ्ये हि.। 2. -०जननी-क.ख. घ.। * त्रिवर्गनो अर्थ पछीना श्लोकमां दर्शावेल छ /