________________ 148 [संस्कृत 5 नमस्कार स्वाध्याय नैकचक्रो रथो याति, नैकपक्षो विहङ्गमः / नैवमेकान्तमार्गस्थो, नरो निर्वाणमृच्छति // 13 // दशकान्तनवास्तित्व न्यायादेकान्तमप्यहो। अनेकान्तसमुद्रेऽस्ति, प्रलीनं सिन्धुपूरवत् // 14 // एकान्ते तु न लीयन्ते, तुच्छेऽनेकान्तसम्पदः। न दरिद्रगृहे मान्ति, सार्वभौम-समृद्धयः // 15 // एकान्ताभासो यः क्वापि, सोऽनेकान्तप्रसत्तिजः। . वर्ति-तैलादि-सामग्री-जन्मानं पश्य दीपकम् // 16 // सच्चासत्व-नित्यानित्य-धर्माधर्मादयो गुणाः। एवं द्वये द्वये श्लिष्टाः, सतां सिद्धिप्रदर्शिनः // 17 // तदेकान्त-ग्रहावेशमष्टधी-गुणमन्त्रतः। मुक्त्वा यतध्वं तत्त्वाय, सिद्धये यदि कामना // 18 // 'णं'-कारोज दिशत्येवं, त्रिरेखः शून्यमालितः। रत्नत्रयमयो ह्यात्मा, याति शन्य-स्वभावताम् // 19 // 15 जेम एक पैडावाळो रथ चाली शकतो नथी अने एक पांखवाळू पक्षी ऊडी शकतुं नथी, तेम एकान्त मार्गमा रहेलो माणस मोक्षने पामी शकतो नथी // 13 // दशनी अंदर जेम एकथी नव सुधीनी संख्यानो समावेश थई जाय छे, तेम अनेकान्तवाद रूप समुद्रमा एकान्तवाद पण नदीना पूरनी जेम समाई जाय छे / परन्तु निःसार एवा एकान्तवादमां अनेकान्त वादनी संपदाओ समाती नथी, कारण के दरिद्रीना घरमां चक्रवतीनी संपदाओ समाती नथी॥१४-१५॥ 20 जेम दीवेट, तेल, कोडियुं वगेरे अनेक वस्तुना समुदायथी उत्पन्न थयेलो दीपक शोभा पामे छे, तेम अनेकान्तपक्षना संसर्गथी कोई कोई स्थले एकान्तपक्षमां पण शोभा देखाय छे, ते अनेकान्तपक्षने ज आभारी छे, एम समजवं // 16 // ए रीते (उपर मुजब) सत्पुरुषोने सिद्धि बतावनारा सत्त्वासत्त्व, नित्यानित्य, धर्माधर्म वगेरे गुणो ते ते जोडकांओने विषे परस्पर संबंधवाळा छे // 17 // 25 तेथी जो सिद्धि माटे कामना होय तो एकान्तरूप ग्रह (शनि आदि प्रह, आ प्रह)ना आवेशने बुद्धिना आठ गुणो रूप मंत्रथी दूर करीने तत्त्व माटे प्रयत्न करो // 18 // णं ए अक्षर त्रण रेखावाळो छे अने माथे शून्य (अनुस्वार) वडे शोमे छे, ए एम देखाडे छे के--ज्ञान, दर्शन अने चारित्ररूप रत्नत्रयस्वरूप बनेलो आत्मा शून्यस्वभावपणाने (मोक्षने) पामे छ। (आ स्थळे शून्यनो अर्थ मोक्ष समजवानो छे, कारण के त्यां सर्व विभावदशानी शून्यता छ।) // 19 // 30 1. ऽपि ग. हि.। 2. कोऽपि क.। 3. सिद्धत्वे ख. ग. घ. हि.।