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________________ 144 [संस्कृत नमस्कार स्वाध्याय मोहस्तं प्रति न द्रोही, मोदते स निरन्तरम् / मोक्षङ्गमी सोऽचिरेण, भव्यो योऽर्हन्तमर्हति // 13 // . अर्हन्ति यं केवलिनः, प्रादक्षिण्येन कर्मणा / अनन्त-गुण-रूपस्य, माहात्म्यं तस्य वेद का ? // 14 // . . रिपवो राग-रोषाद्याः, जिनेनैकेन ते हताः / लोकेश-केशवेशाद्याः, निबिडं यैर्विडम्बिताः // 15 // हंसवत् श्लिष्टयोः क्षीर-नीरयोर्जीव-कर्मणोः / विवेचनं यः कुरुते, स एको भगवान् जिनः // 16 // 'स्मृ'-'ध्यै' प्रभृति-युग्धातु-वर्णवत् सहजस्थितिः / कर्मात्म-श्लेषो धन्येषां, दुर्लक्ष्यो महतामपि // 17 // हन्तात्म-कर्मणो/जाङ्कुरवत् कुकटाण्डवत् / मिथः संहतयोः पूर्वा-पर्य नास्त्येव सर्वथा // 18 // मोह तेना उपर रोषायमान थतो नथी, ते हमेशां आनंदमां रहे छे अने ते अल्पकाळमां ज मोक्ष पामे छे, के जे भव्य पुरुष श्री अरिहंत परमात्माने भावपूर्वक पूजे छे // 13 // 15 अनन्त गुणस्वरूप जे अरिहंत परमात्माने केवल ज्ञानीओ पण प्रदक्षिणा करवापूर्वक पूजे छे, तेमना प्रभावने केवली विना कोण जाणी शके 1 // 14 // रिपु (शत्रु) भूत एवा जे रागद्वेषादि वडे ब्रह्मा, विष्णु, महेश वगेरे पण अत्यंत विडम्बित कराया, ते रागादिने एकला (अन्यनी सहाय न लेनारा) एवा श्री जिनेश्वरे हणी नाख्या ! // 15 // हंस एकमेक थई गयेल दूध अने पाणीने जेम अलग करे छे, तेम एकमेक थई गयेल जीव अने 20 कर्मने पृथक् करनार एक ज जिनेश्वर भगवंत छे (बीजा कोई नथी, अहीं जिननो अर्थ वीतराग करवो) // 16 // ___ 'स्मृ' (स्मरण करवू), 'ध्यै' (चिंतन करवू) वगेरे जोडाक्षरवाळा धातुओना वर्णोनी जेम जीव अने कर्मनो सम्बन्ध सहज छे। ते सम्बन्ध एक जिन विना अन्य महात्माओने (पण)-दुर्लक्ष्यदुर्जेय छे // 17 // बीज अने अंकुरानी जेम तथा कुकडी अने इंडानी जेम आत्मा अने कर्मनो परस्पर संबन्ध 25 अनादिकाळनो छे, तेमां अमुक पहेला हतो अने अमुक पछी हतो एवो पूर्वापर संबन्ध कोई पण प्रकारे छे ज नहि // 18 // 1. राग-दोषाद्याः हि०। 2. एव क०। क०ख०म०हि०। 3. कुर्कटा० ग०, कुर्कुटा• हि०। 4. नान्यथा,
SR No.004318
Book TitleNamaskar Swadhyay Sanskrit Vibhag
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhurandharvijay, Jambuvijay, Tattvanandvijay
PublisherJain Sahitya Vikas Mandal
Publication Year1962
Total Pages398
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size10 MB
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