________________ 118 [संस्कृत नमस्कार स्वाध्याय जातिपुष्पायुतैः शालितन्दुलैः सत्फलैरपि / जप्ता दशांशहोमेन प्रीणिता कुरुते न किम् ? // 38 // एतद्विद्यान्तरोद्भूतखण्डविद्याफलान्यथ / वक्ष्यामि जैनसिद्धान्तरहांसि स्मरणाकृते // 39 // सत्त्वशब्दं विना विद्या गुरुपञ्चकनामभूः / +द्वथष्टाक्षरात्महृत्पद्मगर्भे देवो निरञ्जनः / / 40 // [यद्वा-"अहद-सिद्धाचार्योपाध्याय-सर्वसाधुभ्यो नमः।"] + हृदम्बुजे इमां विद्यां संस्कृते षोडशाक्षरैः। लभते द्विशतीं ध्यायन् चतुर्थतपसः फलम् // 41 // "अरिहंत-सिद्ध"शब्दाजपन् विद्यां षडक्षरीम् / शतत्रयेण लभते चतुर्थतपसः फलम् // 42 // 'अरिहंत'चतुर्वर्ण जपन् ध्यानी चतुःशतीम् / लभते दृष्टजैनात्मा चतुर्थतपसः फलम् // 43 // 'अ'वर्ण च सहस्रार्ध नाभ्यब्जे कुण्डलीतनुम् / ध्यायनात्मानमाप्नोति चतुर्थतपसः फलम् / / 44 // . जुईनां दश हजार पुष्पो वडे, शालि जातना उत्तम अक्षतो वडे, सुंदर फळो वडे जाप करायेली अने एक हजार होम करवा वडे प्रसन्न थयेली आ विद्या शुं शुं न साधी आपे ? // 38 // ... आ विद्यामाथी उत्पन्न थयेली खंड-अंशगत विद्याओनुं फळ अने जैन सिद्धांतनां रहस्यो हवे हुँ स्मरण करवा माटे कहुं छं // 39 // 20 . पंच गुरु (अरिहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय अने साधु)ना नाममाथी उत्पन्न थयेली, सत्त्व-'ॐ' शब्द विनानी, संस्कृत भाषाना सोळ अक्षरोवाळी 'अर्हत्-सिद्धाचार्योपाध्याय-सर्वसाधुभ्यो नमः।'आ विद्या छे। तेने हृदयकमलनी सोळ पांखडीओमा स्थापीने वच्चे कर्णिकामां निरंजन (सिद्ध) देव स्थापवा, एवी रीते आ विद्यानुं बसो वार ध्यान करनार एक उपवासनुं फळ मेळवे छे // 40-41 // _ 'अरिहंत-सिद्ध'-ए छ अक्षरनी विद्यानो त्रणसो वार जाप करनार एक उपवासनुं फळ 25 मेळवे छे // 42 // 'अरिहंत'-ए चार वर्णोनो चारसो वार जाप करनार ध्यानी सम्यग्दृष्टि आत्मा एक *उपवासनुं फळ मेळवे छे // 43 // कुंडलिनी स्वरूप [ 'अहं' (ऽई )ना अवग्रह '5' रूप] 'अ' वर्णनुं नाभिकमलमां पांचसो वार ध्यान करनार एक उपवास, फळ मेळवे छे // 44 // 30 .......++ एतचिह्नान्तर्गतः पाठः म प्रतो निर्गलितः। .. 21.स्कृतैः षोझ। 22°मानं प्राप्नोति / /