________________ 116 नमस्कार स्वाध्याय [संस्कृत इति यन्त्रलेखनं प्रागस्याश्चतस्रोऽस्ति निरसनं चैकम् / आदीवन्ते मध्ये एकादश जलयुता(ताः) भाति(न्ति) // 25 // दुःशील-निव-गुरुद्रोहक विध्वस्तचैत्य-य(प्र)त्यनीकान् / / पातकपञ्चककृतमपि यो दात् त्यजति योग्य इह // 26 // . जिनभक्तिर्गुरुसेवी अव्यसन-विवाद-राज-भक्तकथः / प्रियवाग् जितेन्द्रियमना योग्यः परमेष्ठिविद्यायाः // 27 // पूर्वोत्तरे दिग्वक्त्रः पद्मासन-सुखासनः / सौभाग्य-योगमुद्राभृत् कृताऽऽहानादिकक्रिया(यः) // 28 // "ॐ भूरसि भूतधात्री(त्रि.) भूमिशुद्धिं कुरु कुरु स्वाहा / " .. इति कौकुमाम्भोभिश्चिन्त्यं सद्भुमिसेचनम् // 29 // "ॐ ही विमले तीर्थजला(ले आ)न्तरशुचिः शुचिः / भवामि स्वाहा" इति शान्तिदेवी मधुरितेक्षणा // 30 // कमण्डलुसुधाम्भोभिर्मा संस्नापयतेऽथवा / षोडशविद्यादेव्यस्तीर्थाम्भोभिर्विचिन्त्यताम् // 31 // 15 [ // 25 // मी गाथानो अर्थ स्पष्ट थई शक्यो नथी।] दुःशील, निडव, गुरुद्रोही, चैत्यनाशक अने शासनना प्रत्यनीकोने अथवा ए पांचे प्रकारना पातक करनारने पण जे दूरथी तजे छे, ते आ विद्या माटे योग्य समजवो // 26 // जिनेश्वरमां भक्तिवाळो, गुरुनी सेवा-शुश्रूषा करनारो, व्यसन विनानो, विवाद नहीं करनारो, राजकथा तेमज भक्तकथा वगरनो, प्रिय वाणी बोलनार, इन्द्रियो तेमज मनने जीतनार पुरुष ज परमेष्ठि20 विद्याने योग्य छे // 27 // पूर्व के उत्तर दिशामा मुख राखीने, पद्मासने अथवा सुखासने बेसीने, सौभाग्यमुद्रा अगर योगमुद्राने धारण करी आवाहन आदि क्रिया करवी // 28 // ___ पछी भूमिशुद्धि माटे आ मंत्र बोलवो “ॐ भूरसि भूतधात्रि ! भूमिशुद्धिं कुरु कुरु स्वाहा // " -आ प्रकारे कुंकुम-केसरवाळा पाणीथी भूमिने सिंचन करुं छु एम चितवतुं // 29 // (मंत्र-स्नान-) "ॐ ही विमले तीर्थजले आन्तरशुचिः शुचिर्भवामि स्वाहा // " ___एम बोलवू अने मधुरित आंखोवाळी शांतिदेवी कमंडलुमा भरेला अमृत-पाणी वडे मने नवरावे छे-अथवा सोळ विद्यादेवीओ तीर्थोनां पाणीथी मने नवरावे एम चिंतवतुं // 30-31 // 30 15 °दावेते म प्रतौ भ्रष्टपाठः। 16 °क्तिगुरु / 17 °त्तरेशदि म प्रतावसम्यक् पाठः / 18 तेऽथ' इत्यतः पुण्डरी यावत् पतितोऽयं पाठःश प्रतो। 25