________________ विभाग] 109 श्रीमन्त्रराजरहस्यान्तर्गतार्हदादि-पञ्चपरमेष्ठिस्वरूपसंदर्भः वर्णान्तः श्रीवीरो रेफः सिंहासनं तु चन्द्रकला / रुचिदण्डछत्रत्रयं मन्त्रकलशोऽस्य नादशिखा // 461 // 65 // वर्णान्तस्तीर्थकरत्रिकोणकोटीरमथ सितांशुकला / सर्वत्र शीतलेश्या शून्यं शुक्त ततः परं सिद्धिः // 462 / / 66 / / रेफद्धयाद्यमयुतं तथोर्ध्वरेफमधास्थरेफ वा। अत्यक्तसान्तबीजं मन्त्रतनुर्जिनपतिः साक्षात् // 463 // 67 // त्रैलोक्यवर्तिशाश्वतजिनदर्शन-पूजन-स्तुतिभवेन / जिनपतिबीजाष्टशतं स्मरन् फलेन स्वयं त्रियते // 464 // 68 // अथवा, वर्णान्त-'ह' ए वीर भगवंतनो वाचक छे, (नीचेनो) रेफ-'' ते सिंहासन छे अने चंद्रकला ''ए (ऊपरना) र रूपी (त्रण) दंड ऊपर रहेल त्रण छत्र स्वरूप छे अने तेनी नादशिखा 10 (बिन्दु) अहीं मन्त्रकलश स्वरूप छे // 461 // 65 // अथवा-वर्णनी अंते रहेलो 'ह' तीर्थंकर स्वरूप छे, '' त्रिकोणकोटि () छे, अर्धचन्द्रकला ते सर्वत्र शुक्ललेश्यानी सूचक छे, शून्य ते शुक्लध्यान- प्रतीक छे, अने ते पछी सिद्धि प्राप्त थाय छे // 462 // 66 // बे रेफ, आद्य-अ अने म-थी युक्त अने ह बीज सहित एवो अर्ह ए श्रीजिनपतिनो साक्षात् 15 मंत्र छे। अथवा ऊर्ध्व रेफ सहित ह (ई) अथवा अधो रेफ सहित ह (ह) अथवा बन्ने रेफ सहित (ई):ए त्रणे पण मंत्रदेहधारी साक्षात् जिनपति छे // 463 // 67 // _ जिनपतिबीज 'अर्ह 'न 108 वार स्मरण करनार त्रणे लोकमां रहेली शाश्वत जिनप्रतिमाओनां दर्शन, पूजन अने स्तुतिथी थनारां फळो वडे स्वयं वराय छे (ए फळो तेने स्वयं वरे छे) // 464 // 68 // परिचय मंत्र, गणित, ज्योतिष् वगेरे विषयोना पारगामी आचार्य श्रीसिंहतिलकसूरिए सूरिमंत्र विशे 'मंत्रराज-रहस्य' नामनो आर्या, अनुष्टुप्-छंदमां 633 गाथाओ (प्रथाग्र ८००)नो सूरिमंत्र विषयनो माहितीपूर्ण एक विशिष्ट ग्रंथ वि. सं. १३२७मां रच्यो छे, जे अद्यावधि अप्रसिद्ध छे। तेनी एक ह. लि. प्रति वड़ोदरा, श्रीमुक्तिकमलज्ञानमंदिरना संग्रहमांथी मळी हती। बीजी प्रति पाटण, पं. अमृतलाल मोहनलाल भोजकना संग्रहमांथी प्राप्त थई हती। अने त्रीजी प्रति डभोइ, श्री अमरविजयजी ज्ञानभंडारमाथी 25 मळेली; परंतु त्रणे प्रतिओ अशुद्ध हती। छेवटे चोथी प्रति जयपुर, तपगच्छ जैनभंडारनी मळी, तेना ऊपरथी मूळ ग्रंथ- संशोधन थई शक्युं छे।