________________ 108 [संस्कृत नमस्कार स्वाध्याय अई लक्ष्यीकृत्य ध्यायन् नादादिविच्युतौ शशिनम् / यद्वर्णमात्रमक्षरभावोज्झितमीरितुं शक्यम् // 455 // 59 // पश्यत्यनाहताभिधदेवमसौ सूक्ष्मलक्ष्यगतः / तस्माच्च गलितलक्ष्यो ज्योतिर्मयमीक्षते विश्वम् // 456 // 60 // . मन्त्रराजसमुद्भूतानाहतस्थितचेतसः / सिध्यन्ति सिद्धयः सर्वा अणिमाद्याः स्वयं यतेः // 457 // 61 // इति पिण्डस्थिति-पंदगत-रूपाश्रित-रूपवर्जिताभ्यासात् / अई मेरुध्यातुस्तत्तद्भवसिद्धिसाम्राज्यम् // 458 // 62 // अकारः श्रीपतिः सान्तः सेन्दुः शम्भुर्विधिश्च रः / ऊध्र्वमेतनभोलोकस्तदन्तेऽनाहतो जिनः॥ 459 // 63 // अहं त्रैलोक्यपूज्यत्वाद् (1) अनन्तकरुणा जिनाः। सदलत्रयभाजस्तदई सर्वबीजकम् // 460 // 64 // आ रीते अहूंना पदस्थ ध्यान पछी नाद वगेरेथी रहित (अ, रेफ, बिन्दु अने कलाथी रहित) उज्ज्वल 'ह' वर्णनुं ध्यान करवू / आ 'ह' अक्षरभावने प्राप्त कहेवाय / ते 'ह' हवे वर्णमात्र (वाचाथी 15 अनुच्चार्य) रहे अने अनक्षरताने पामे, ते माटे तेने चन्द्रकलाकारे चिंतववो। आ रीते सूक्ष्म लक्ष्य (चन्द्रकला)मां स्थिर थयेलाने चन्द्रकलाना आकारवाळा श्री अनाहतदेवनां दर्शन थाप छ। पछी ते अनाहत-चन्द्रकलाने सूक्ष्मातिसूक्ष्म-वालाग्रसदृश-बिंदुरूप चिंतववी, पछी ते लक्ष्यथी पण मनने खसेडी लेवें / ते पछी योगी विश्वने ज्योतिर्मय जुए छे // 455-456 // 59-60 // ___ मंत्रराज(अह)थी उत्पन्न उपस्थित थयेला अनाहत देवमां जेणे मनने स्थिर कर्यु छे ते यतिने 20 अणिमा वगेरे बधी सिद्धिओ स्वयं सिद्ध थाय छे // 457 // 61 // . आ प्रकारे पिंडस्थ, पदस्थ, रूपाश्रित अने रूपातीतना अभ्यासथी 'अहूं'-मेरुनु पूर्वोक्त रीते ध्यान करनारने ते ते भवोमां अनेक सिद्धिओ रूप साम्राज्य प्राप्त थाय छे // 458 // 62 // ('अर्ह'मा रहेल) 'अ' ते विष्णुस्वरूप छे, 'स'नी अंते रहेल अने इन्दुकला , सहित एवो 'ह' अर्थात् 'हूँ' ते शंभुस्वरूप छे अने '' ब्रह्मास्वरूप छे, एनाथी ऊपर बिंदु ते लोकाकाश छे 25 अने बिन्दु पछी जे अनाहत प्रगटे छे, ते लोकाकाशना अंते (सिद्धशिलाना उपर) रहेल 'जिन' छे // 459 // 63 // 'अई। एटले त्रणे लोकने पूज्य, अनन्तकरुणावाळा अने रत्नत्रयने धारण करनारा श्री जिनेश्वर भगवंतो छे, तेथी अर्ह सर्व सद्वस्तुओनी प्राप्तिनुं बीज छे॥ 460 // 64 // 1. सरखावो-योगशास्त्र; अष्टम प्रकाश, श्लो. 24-25-26 / 2 , श्लो० 27-28 / 30