________________ विभाग] 107 श्रीमन्त्रराजरहस्यान्तर्गताहंदादि-पञ्चपरमेष्ठिस्वरूपसंदर्भः उक्तं चकमलदलोदरमध्ये ध्यायन् वर्णाननादिसंसिद्धान् / नष्टादिविषयबोधो ध्यातुः संपद्यते कालात् // 451 // 55 // अर्हजपात् क्षयमरोचकमग्निमान्द्यं कुष्ठोदरामकसन-श्वसनानि हन्ति / प्राप्नोति चाप्रतिमवाक् महती महद्भ्यः पूजां परत्र च गतिं पुरुषोत्तमाप्ताम् // 452 // 56 // अपि चकनककमलगर्भ कर्णिकायां निषण्णं विगततमसमर्ह सान्द्रचन्द्रांशुगौरम् / गगनमनुसरन्तं सञ्चरन्तं हरित्सु .. स्मर जिनपतिकल्पं मन्त्रराजं यतीन्द्र ! // 453 / / 57 // इति सर्वत्रगं ध्यायन्नहमित्येकमानसः। स्वप्नेऽपि तन्मयो योगी किश्चिदन्यन्न पश्यति // 454 // 58 // 15 कर्तुं छे के अनादिसंसिद्धवर्णोनु कमलपत्रनी अंदर जे ध्यान करे छे तेने नष्ट (चोरायेली) वस्तु वगेरे / विषय- ज्ञान समय जतां थाय छे' // 451 // 55 // 'अर्ह' मन्त्रराज जाप द्वारा क्षय, अरुचि, अपचो, कोढ, आमरोग, खांसी, श्वास वगेरे (रोगोनो) नाश करे छे; जाप करनार अप्रतिम वाणीवाळो बने छे, महापुरुषोनी पण पूजाने प्राप्त करे छे अने परलोकमां उत्तम पुरुषोए प्राप्त करेली गतिने मेळवे छे / / 452 // 56 // 20 हे मुनिवर ! तुं अज्ञानरूप अंधकारथी रहित, घन एवां चन्द्रकिरणोना जेवी गौर कांतिवाळा अने साक्षात् जिनपति समान एवा मंत्रराज अहं (नाभिगत) सुवर्णकमलनी मध्यमा विराजमान छे, एम प्रथम चिंतव / ते पछी ते आकाशमा जाय छे अने सर्वदिशाओमां संचरे छे, एम चिंतव // 453 // 57 // आ प्रकारे सर्वत्र जता एवा 'अई' एक चित्तथी ध्यान करतो अने तेमां लीन थतो योगी स्वप्नमां पण ए (अई) सिवाय बीजुं जोतो नथी // 454 // 58 // 25 1. जुओ ज्ञानार्णव, पृ. 387, श्लो. 1. 2. जुओ 'ज्ञानार्णव' पृ. 387, श्लो. 2, तथा योगशास्त्र; अष्टम प्रकाश, श्लो० 5 अने ब्याख्या। 3. सरखावो-योगशास्त्र, अष्टम प्रकाश, श्लो. 14-17 //