________________ विभाग] 105 . श्रीमन्त्रराजरहस्यान्तर्गतार्हदादि-पञ्चपरमेष्ठिस्वरूपसंदर्भः हः शम्भुः सेन्दुकलो ब्रह्मा रस्तुर्यकः स्वरो विष्णुः / संसृतिरस्या बिन्दुं दत्त्वा नादो विभात्यहन् / / 443 // 47 // वर्णान्तः पार्थजिनः कला फणा बिन्दुरत्र-नाद(ग)महः / नागो र ई तु पद्मा तत्रान् सूरिमेरुमयः // 444 // 48 // वारि-घंट-पत्र-यन्त्रे मूर्धनि भाले सुपुष्प-नैवेद्यैः / संपूज्यामुं जापः करपवेभिरब्जबीजाद्यैः॥ 445 // 49 // मायाबीजं लक्ष्य(क्षं) परमेष्ठि-जिनौलि-रत्नरूपं यः / ध्यायत्यन्तीरं हृदि स श्रीगौतमः सुधर्मा च // 446 // 50 // इति मायाबीजम् // ___ इंदुकलायुक्त ह अर्थात् 'ह' ए शंभुनो वाचक छे, 'र' ए ब्रह्मानो वाचक छे अने चोथो 10 स्वर 'ई' ए विष्णुनो वाचक छे। एनाथी (?) संसारनी प्रवृत्ति थाय छे, तेना ऊपर बिन्दु-शून्य दइए अर्थात् मीडु मूकीए तो ते 'नाद' छे अने ते स्वयं 'अर्हन् ' रूपे शोमे छे / 443 // 17 // One हर / ब्रह्मा विष्णु / अरिहंत वर्णनी अंते रहेल 'ह' ए पार्श्वजिन छे, कला ए फणा छे, बिन्दु ए नागना मस्तके रहेल 15 . मणि छे, 'र' ए नाग-धरणेन्द्र छे अने 'ई' ए पद्मावती देवी छे, तेमां अरिहंतनी आकृति ते * सूरिमेर छे॥४४४॥४८॥ पार्श्वजिन | फणा / नागमणि / जोत नागमणि | धरणेन्द्र | पद्मावती (जाणे) जलथी पूर्ण कलश होय अने तेना पर पवित्र पांदडां मूकेला होय एवा आकारवाळा 20 (सिद्धचक्र समान) यंत्रना उपरना भागमा 'ही' कारने स्थापन करी तेनी पूजा करवी, पछी आंगळीना . वेढा वडे, कमलाकार वडे अथवा रुद्राक्षादि माला वडे तेनो जाप करवो (2) // 445 // 49 // ____ मायाबीज-हीकार परमेष्ठिमय छे, जिनावलीमय (चोवीश तीर्थंकरमय) छे अथवा तो त्रण रत्न (ज्ञान, दर्शन, चारित्र )मय छे, ए प्रकारे मायाबीज-ड्रीकारने लक्ष्यमा राखीने हृदयमा जे श्रीवीर भगवंतनुं ध्यान करे छे ते श्रीगौतम गणधर अथवा श्रीसुधर्मा गणधर सदृश थाय छे // 446 // 50 // 25 1. संसारने बिन्दु (शून्य-म९ि) दईए अर्थात् सांसारिक प्रवृत्ति बंध करीए तो आत्मा अर्हन् थाय छे, एवो पण अर्थ लई शकाय।