________________ 104 [संस्कृत नमस्कार स्वाध्याय चन्द्राभः शशिशान्त्यै कुजस्य पद्मप्रभो गुरोः शान्तिः / सूर्यस्य नाभिभूरथ वीरो राहोश्च शान्तिकृते // 438 // 42 // मन्दस्य श्रीपार्थो बुधस्य नमिश्च शान्तये तदिह / मायाबीजे तत्तत्स्थाने देवं ग्रहं च तं ध्यायेत् / / 439 // 43 // इति शान्तिकम् // कुण्डलिनी भुजगाकृति (ती) रेफाश्चित'हा' शिवः स तु प्राणः / तच्छक्तिीर्घकला माया तद्वेष्टितं जगद्वश्यम् / / 440 // 44 // नाभौ हृदये कण्ठे आज्ञाचक्रेऽथ योनिमध्ये वा। सिन्दूरारुणमायाबीजध्यानाद् जगद्वश्यम् // 441 / / 45 // प्राग्वद् वर्णानुगतं मायाबीजं विशिष्टकार्यकरम् / प्रायः शिरसि त्रिकोणे वश्यकरं कामवीजवत् // 442 // 46 // चम चंद्रनी शांति माटे श्रीचन्द्रप्रभ, मंगलनी शांति माटे श्रीपद्मप्रभ, गुरुनी शांति माटे श्रीशांतिनाथ, सूर्यनी शांति माटे श्रीऋषभदेव अने राहुनी शांति माटे श्रीवीर, शनिनी शांति माटे श्रीपार्श्वनाथ अने बुधनी शांति माटे श्रीनमिनाथ–एम मायाबीज हीकारमा ते ते तीर्थंकरोना स्थाने ते ते ग्रहनुं ध्यान 15 करवू // 438-439 // 42-43 // रेफथी युक्त ह (ह) ते भुजग(सर्प)नी आकृतिवाळी कुंडलिनी छे / केवल 'ह' ते शिवं छे, ते ज प्राण छे, दीर्घकला ( दीर्घ ईकार) ए तेनी शक्ति-माया छे, मात्राथी वेष्टित (मोहित) जगत छे, जगत 'ही' ना ध्यानथी वश थाय छे (?) // 440 // 44 // नाभि(मणिपुरचक्र)मां, हृदय(अनाहतचक्र)मां, कंठ(विशुद्धचक्र)मां, आज्ञाचक्र(भूमध्यभाग)मां 20 अथवा योनिमध्य(स्वाधिष्ठानचक्र)मा सिंदूर समान अरुणवर्णवाळा मायाबीज(हीकार)नुं ध्यान करवाथी जगत वश थाय छे // 441 // 45 // मायाबीज-हीकारनुं ते ते वर्णने अनुसार ध्यान कराय तो ते विशिष्ट कृत्यकारी थाय छ। प्रायः मस्तकमां-त्रिकोणमां तेनुं ध्यान करवाथी ते कामबीज (क्ली)नी माफक वशीकरण माटे थाय छे॥४४२॥४६॥ 1. सरखावो :-- "अकारो भुजगाकृत्या कुण्डली विश्वजन्मभूः / . तत्परो हः शिवः स्वात्मा राजतेर्ह इत्यतः॥ -सूरिमन्त्रकल्पसंदोह, परिशिष्ट पृष्ठ-३