________________ नमस्कार स्वाध्याय घव्यां गुर्वक्षरमिता उच्छ्वासाः स तु एककः / दशप्रणवजास्तेन प्राणायामा घटीभवाः // .428 // 32 // . त्रिशती सह षष्टया स्याद्दशप्रणवजा मुनेः / सन्ध्यातो याति नोच्छ्वासः परमेष्ठिस्मृति विना // 429 // 33 // परमेष्ठिमयो रत्नमयः सर्वमहोमयः।। प्रणवः सरिमन्त्रादौ गौतमस्वामिना कृतः॥४३० // 34 // .. वृत्ताकृतिरहन्तस्त्रिकोणसिद्धास्तु शीर्षकं सरिः। वाचक इन्दुकलाज दीर्घकला साधुरिति पञ्च // 431 // 35 // शीर्ष-मुख-कण्ठ-हँदय-क्रेमगतमात्मानमन्यदेहिगतम् / अर्हत्सिद्धाचार्योपाध्याय-मुनिपदं तु रक्षायै // 432 // 36 // एक घडीमां गुर्वक्षर प्रमाण एटले 360 उच्छ्वास थाय / तेमां एकेक उच्छवासे दश प्रणव (नो जाप) उत्पन्न थाय / आ रीते घडीथी उत्पन्न थनारो 3600 प्रमाणनो प्रणव कह्यो छे // 428 // 32 // दश प्रणवथी उत्पन्न थतां (एक घडीमां) 360 प्रमाण (जापसंख्या) थाय छे। आथी संध्याथी लईने परमेष्ठीना स्मरण विनानो मुनिनो एक पण उच्छ्वास जतो (होतो) नथी // 429 // 33 // 15 आ प्रणव (ॐकार) पंचपरमेष्ठिमय छे; त्रण रत्नमय छे, सर्व प्रकारनी पूजास्वरूप छे, तेथी सूरिमंत्रनी आदिमां पण श्रीगौतमस्वामीए ॐकारनो निर्देश कर्यो छे // 430 // 34 // . (हीकार-) हीकारमा वृत्ताकृति ' . ' बिंदु ते अरिहंत, त्रिकोणाकृति 'A' नाद ते सिद्ध, शीर्षक 'ह' मुख्याक्षर ते आचार्य, चंद्रकला ' ते वाचक (उपाध्याय) अने दीर्घकला ' ईकार ते साधु-ए रीते 20 पांच परमेष्ठीओ (जणाव्या) छे // 431 // 35 // बीजाना देहमां पोताने स्थापित करवो, त्यां रहेल पोताना शीर्ष, मुख कंठ, हृदय अने चरणस्थानोमां अनुक्रमे अरिहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय अने मुनि पदोनो न्यास करवो, एथी रक्षा थाय छे / // 432 // 36 // [अहीं एवो पण अर्थ लई शकाय के–पोतानी रक्षा माटे पोताना देहमा न्यास करवो अने 25 अन्यनी रक्षा माटे अन्यना देहमां न्यास करवो।] 1. सरखावो–'वट्टकला अरिहंता तिउणा सिद्धा य लोढकल सूरी। उवज्झाया सुद्धकला दीहकला साहुणो सुहया // 10 // ' -न. स्वा. (प्रा. वि.) पृ. 263 आ गाथानो भावार्थ तो उपर्युक्त 431 श्लोक जेवो च छे पण आमांनो 'लोढकल' शब्द ध्यानमा लेवा जेवो छ। लोट एटले आठ, कला-रेखा जेमा छे ते 'ह' समजवो / श्रीहेमचंद्राचार्य 'अमिधानचिंतामणि-वृत्ति'मां 30 जणावे छ के-'सुवर्ण रजतं तानं रीतिः कांस्यं तथा त्रपुः / सीसं च धीवरं चैव अष्टौ लोहानि चक्षते // ' (पृ. 416) 2. सरखावो-'सीसत्या अरहंता सिद्धा वयणम्मि सूरिणो कंठे। हिययम्मि उवज्झाया चरणठिया साहुणो वंदे // 8 // ' -न. स्वा. (प्रा. वि.) पृ. 263