________________ 100 नमस्कार स्वाध्याय [संस्कृत अः पृथिवी पीतरुचिः उोम तडित्प्रभाभिराक्रान्तम् / मः स्वर्गः कला चन्द्रप्रभमिन्दुनभस्तत्परं ब्रह्म // 416 // 20 // अ-उ-मो विष्णु-विधीशास्त्रिगुणाः सकलास्तु कृष्ण-पीत-सिताः। संसृतिरताश्च निष्कलम_ नादो जिनः सिद्धः // 417 // 21 // . . आलोकेनोपलम्भेन मुनित्वेन च साधितः / __रत्नत्रयमयो ध्येयः प्रणवः सर्वसिद्धये // 418 // 22 // वा 'ॐ' इत्यन्तराप्राणशब्दो यः स्यात् तदुद्भवम् / शब्दब्रह्मेत्यसौ युक्त (उक्तः) वाचकः परमेष्ठिनाम् // 419 // 23 // (ॐकार-) / ('ॐ' ना स्थूल वर्णो 'अ, उ, म्' आ प्रमाणे चितववा-'अ' ए पृथ्वीरूप (भूः) छे अने तेनी कांति पीळी छे, 'उ' ए आकाश रूप (भुवः) छे अने ते वीजळीनी प्रभाथी भरपूर छे, 'म्' ए स्वर्गरूप (स्वः) छे अने कला चंद्रनी कांति जेवी छे। नभ (बिंदु) ते इंदु छे, तेथी पर (नाद) ते शब्दब्रह्म छे॥ 416 // 20 // ___ अ / उ / म् / कला | बिंदु / नाद .. 15 'अ, उ, म्' थी ॐ सकल चिंतवीए तो ते त्रिगुणात्मक छे अने तेना अंशो (अनुक्रमे) ब्रह्मा, विष्णु अने शिव छे-तेनुं ध्यान धराय छे; ए त्रणे अनुक्रमे सत्त्व, रजस् अने तमस् गुणवाळा छे; सकल (देहधारी), श्वेत, पीळा तेम ज श्यामवर्णवाळा' अने संसारमा रत छे। कलारहित आकाश (शून्य-बिन्दु) ते नाद छे अने ते ज जिन अथवा सिद्ध छे // 417 // 21 // 20 सकल निष्कल अ / उ / म् / बिंदु / नाद | ब्रह्मा | विष्णु | महेश / अरिहंत / सिद्ध . 'आलोक'--प्रकाश अर्थात् ज्ञान; 'उपलम्भ'-प्राप्ति अर्थात् दर्शन अने 'मुनित्व' अर्थात् चारित्र-ए वडे साधित (आ+ उ + म् = ॐ) त्रण रत्न (ज्ञान, दर्शन, चारित्र) स्वरूप प्रणव 25 (ॐकार) नुं सर्व सिद्धि माटे ध्यान करवू जोईए // 418 // 22 // आ आलोक उपलंभ मुनित्व . ज्ञान चारित्र अथवा देहमां 'ॐ' एवो जे प्राणात्मक (प्राणसंचारात्मक) ध्वनि थाय छे तेमांथी शब्दब्रह्म 30 (मातृका) उद्भवे छे, माटे (शब्दब्रह्म-मातृकावाचक होवाथी अने परमेष्ठिओ वाच्य होवाथी) ते ॐकार 'परमेष्ठिओने वाचक' कहेवायो छे (1) // 419 // 23 // 1. सरखावो-'ध्यानबिन्दूपनिषद्'-"अकारः पीतवर्णः स्याद् रजोगुण उदीरितः // 12 // उकारः सात्त्विको शुक्लो मकारः कृष्ण-तामसः।......॥१३॥" JAN दर्शन