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________________ विभाग] श्रीमन्त्रराजरहस्यान्तर्गतार्हदादि-पञ्चपरमेष्ठिस्वरूपसंदर्भः षट्कोणाकृतिदेहे मध्ये नरमेरुसूर्यबिम्बस्थम् / यः सरिमेरुमन्तः स्वं पश्यति सोऽपि सर्वज्ञः // 356 // 17 // शविन्यन्तः शुषिरितवंशाग्रविलासिमौलिमेरुमये / आचार्यमेरुरात्माऽर्हन्निन्दुबिम्बस्थः // 357 // 18 // चन्द्रार्कशक्रसङ्गमसमरससिक्तं स्वमौलिमेरुस्थम् / यः मरिमेरुरर्ह स्वं पश्यति सोज योगीन्द्रः // 358 // 19 // 5 षट्कोणाकृति मनुष्यदेहना मध्यमां नाभिकमल छे, तेमां सूर्यनुं स्थान छे, ते सूर्यना बिंबमा रहेला अरिहंत छे, तेनी अंदर पोते छे, एम जे विचिंतन करे छे ते सर्वज्ञ थाय छे // 356 // 17 // ' [अथवा (हीकार जेनो) देह षट्कोणाकृतिनो छे, तेना मध्यमां पंचपरमेष्ठिरूप ज्योत जे ॐकार छे तेना मध्यमां 'अहं 'नो न्यास करीने तेना गर्भमां पोतानो आत्मा छे, एम जे विचिंतन करे छे ते सर्वज्ञ 10 थाय छे. // 356 // 17 // ] छिद्रवाळा वासना अग्रभाग ऊपर रहेल होय एम मस्तकनी मेरुमय शंखिनी नाडीमां चंद्रबिंब छे, तेमां अरिहंत विराजे छे अने (ध्यान करनारनो) आत्मा ते आचार्यमेरु (परमात्मा अरिहंत)स्वरूप छे एम चिंतवे (अथवा तो) पोताना मस्तकमां रहेल मेरुमां चंद्रनाडी, सूर्यनाडी अने सुषुम्णानाडीना संगमथी उत्पन्न थयेल जे.समरस, तेनाथी सिंचायेला सूरिमेरु स्वरूप 'अर्ह' अरिहंत ते स्वयं छे–एम जे चिंतवे 15 छे, ते अहीं योगीन्द्र छे (!) // 357-358 // 18-19 // / ... 1. 'सूरिमन्त्रकल्पसंदोह' पृष्ठ 45 मां 'मेरु' शब्दनो अर्थ अने भावार्थ आ प्रकारे जणान्यो छे.. . "मेरुसद्देण अरिहंतत्तणं वुच्चइ / अरिहंतत्तणेण अरिहंता, जहा चक्केण चक्की, रज्जेण राया। ......... अरिहंतत्तणं मुस्खतरुवीयभूयं अरिहंता अंकुरा। सेसा साहपसाहन्वा णेया। अतः कारणात् मेरुरूपे (आर्हन्त्यरूपे) मन्त्रराजे स्मर्यमाणे जिनप्रभा भवति / 20 अर्हन् स्तुत्यगुणसंपूर्णो भगवान् , तेन स्तुतिपदानि भगवतामृद्धिस्थानीयान्युक्तानि // " (अर्थ) “जेम चक्रथी चक्री अने राज्यथी राजा कहेवाय छे तेम 'मेरु' शब्दथी अरिहंतपणुं कहेवाय छे अने अरिहंतपणाथी अरिहंत ओळखाय छे / ...... .. अरिहंतपणुं ए मोक्षरूपी वृक्षना बीजस्वरूप छे अने अरिहंतो अंकुररूपे छे, बाकीना बीजा शाखा अने प्रशाखाओ कहेवाय छे / ए कारणथी अरिहंतपणारूप मंत्रराजनुं स्मरण करतां भगवान, तेज प्राप्त थाय छे। 25 स्तुति करवा योग्य गुणोथी परिपूर्ण भगवाननां स्तुतिपदो पण ऋद्धिनां स्थान छे, एम कहेवायु छ / " आ अर्थने लक्षमां लेतां अहीं जे 'नरमेरु' शब्द जणान्यो छे ते मानव देहना आत्मानो वाचक छ भने 'सूरिमेरु' ते अरिहंतपणानो वाचक छ। अर्थात् मंत्रनुं अनुष्ठानपूर्वक ध्यान करनारनो आत्मा ज्यारे 'पोते अरिहंतस्वरूप छे' एम संवेदन करे त्यारे ते सर्वज्ञ बने छ।
SR No.004318
Book TitleNamaskar Swadhyay Sanskrit Vibhag
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhurandharvijay, Jambuvijay, Tattvanandvijay
PublisherJain Sahitya Vikas Mandal
Publication Year1962
Total Pages398
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size10 MB
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