________________ नमस्कार स्वाध्याय [संस्कृत शशि-सुविधिजिनौ नादो विन्दुर्मुनिसुव्रतो व्रती नेमी। उद्यच्चन्द्रकलाऽन्तः सिद्धौ पद्माभ-वासुपूज्यजिनौ // 352 // 13 // वर्णान्तः सशिरो रः षोडश सूरीश्वरास्तथैकारः। पार्थो मल्लिर्वाचक इदमपि न विरोधि पूर्ववद्भणितम् // 353 // 14 // एकैकोऽर्हत्प्रभृतिः शतादिवर्णानुगोऽनिशं ध्यातः। शान्त्यादि कर्मपदं तनोति किन्त्वत्र दिभात्रम् // 354 // 15 // परमेष्ठिपश्चनिर्मितजिनमयमाचार्यमेरुमर्हन्तम् / त्रैलोक्य-श्रीबीजं सर्व ध्यायति स सर्वज्ञः // 355 // 16 // श्रीचंद्रप्रभ अने श्रीसुविधिनाथ ते अरिहंतस्थाने होवाथी हीकारनो 'नाद' अंश छे; श्रीमुनि10 सुव्रतस्वामी अने श्रीनेमिनाथ ए साधुस्थाने होवाथी हीकारनो 'बिंदु' अंश छे; श्रीपद्मप्रभ अने श्रीवासु पूज्यस्वामी ए सिद्धस्थाने होवाथी ऊगता चंद्रनी 'कला' रूपे छे; सोळ जिनेश्वरो (श्रीऋषभदेव, श्रीअजितनाथ, श्रीसंभवनाथ, श्रीअभिनन्दन, श्रीसुमतिनाथ, श्रीसुपार्श्वनाथ, श्रीशीतलनाथ, श्रीश्रेयांसनाथ, श्रीविमलनाथ, श्रीअनंतनाथ, श्रीधर्मनाथ, श्रीशांतिनाथ, श्रीकुंथुनाथ, श्रीअरनाथ, श्रीनमिनाथ अने श्रीवर्धमानस्वामी) आचार्य स्थाने होवाथी शिर सहित वर्णोनी अंते रहेलो इ, जे 'र' साथेनी आकृति (ह)–हीकारनी 15 अष्टकलारूप अंशवाळो छे; श्रीपार्श्वनाथ अने श्रीमल्लिनाथ ए उपाध्याय स्थाने होवायी हीकारनो 'ई'कार अंश छे–ए रीते (हीकार)ना चिंतनमा पूर्वनी जेम विरोध नथी // 352-353 // 13-14 // अरिहंत वगेरे एकेकनुं वर्णाक्षरोना सेंकडो (अनेक प्रकारना) आयोजनोनी साथे रोज (!) ध्यान धराय छे तेथी तेओ शांति आदि छये कर्मना कृत्यकारी थाय छे परंतु अहीं तो तेनुं दिशासूचन मात्र कर्यु छे // 354 // 15 // (शतादिवर्णानुगः' नो सेंकडो स्तुतिओपूर्वक' अथवा 'सो, हजार वगेरे संख्यामा' एवो पण अर्थ थई शके।) परमेष्ठिपंचकथी निर्माण थयेलो 'ॐ' ते जिनस्वरूप छे, तेमज आचार्यमेरु (आयरियमेरु) श्री अरिहंत-'अहं' स्वरूप छे, 'ही'कार ते त्रैलोक्यबीज अने 'श्रीं' (ज्ञानलक्ष्मी) बीजाक्षर छे, ते–'ॐ श्री ही अर्ह नमः' (अथवा 'ॐ ही श्री अर्ह नमः') ए सघळानुं ध्यान धरनार सर्वज्ञ बने छे // 355 // 16 // 25 1. षट्कं करोति किञ्चात्र /