________________ विभाग] श्रीमन्त्रराजरहस्यान्तर्गतार्हदादि-पञ्चपरमेष्ठिस्वरूपसंदर्भः आचार्याः स्वर्णनिभाः कुर्युर्जलवहिरिपुमुखस्तम्भम् / सूर्यक्षरशीषोंकृतिदण्डहता न स्युरुपसगोः॥ 347 // 8 // नीलाभोपाध्यायो लाभार्थ शुक्लनीलकृद् यदि वा / अध्यापकार्द्धचान्द्री कलाऽऽत्मलाभाय परगलके // 348 // 9 // कृष्णरुचः साधुजनाः क्रूरदृशोच्चाट-मृत्युदाः शत्रोः।। साध्वक्षरदीर्घकलाकृत्यङ्कशमुद्रया हता रिपवः // 349 // 10 // अहेन्नम्भः सिद्धस्तेजः सूरिः क्षितिः परे वायुः।। साधुर्योमेत्यन्तमण्डलतत्वानुगं सदृग् ध्यानम् // 350 // 11 // 'नादो'ईन् 'व्योम'मुनिः 'कला'ऽथ सिद्धः 'शिरो-ह-रः' सूरिः। 'ई'कार उपाध्यायो मायायां प्राग्वदुत शेषम् // 351 // 12 // आचार्योनो वर्ण सुवर्ण सरखो छ / तेओ जल (पाणी- पूर, अतिवृष्टि वगेरे), अग्नि (आग) अने शत्रुना मुखनुं स्तंभन (स्तंभनकृत्य) करे छे'। सूरि (आचार्य)नो अक्षर जे शीर्षनी आकृति '_' (देवनागरी लिपिनी सीधी लीटीरूप संज्ञा) रूप दंडथी हणाएला उपसर्गो नाश पामे छे // 347 // 8 // उपाध्यायनो वर्ण नील छे ते ऐहिक लाभार्थे छे' अने ते शुक्ल-नीलकृत्य (तुष्टि-पुष्टिकृत्य) माटे छे, तेमज अध्यापकनी (हीकार आकृतिमा रहेली) अर्धचन्द्रकला (5) बीजाना गळामां (?) 15 ध्यान करतां पोता लाभ थाय छे // 348 // 9 // साधुओनो वर्ण श्याम छे तेथी ते (पापीओना मारण अने उच्चाटनकृत्य करवा माटे) शत्रुओने क्रूरदृष्टिथी उच्चाटन अने मृत्यु आपनार बने छ / (आकृतिरूपे) दीर्घकला (दीर्घ ईकाररूप) '1' छे ते साधुनो अक्षर छे। ते (ईकार- 1) अंकुशमुद्रास्त्ररूप छे अने तेनाथी शत्रुओ हणाय छे // 349 // 10 // अरिहंतनुं (जलतत्त्व) वरुणमंडल रूपे, सिद्धनुं अग्निमंडल रूपे, आचार्य, पृथ्वीमंडल रूपे, 20 * उपाध्यायनुं वायुमंडल रूपे अने साधुनुं व्योममंडल रूपे ध्यान ते देहमा रहेला जलतत्त्वादिना मण्डलोने अनुसरतुं ध्यान छे // 350 // 11 // . अरिहंत ते नाद, मुनि ते व्योम (बिंदु), सिद्ध ते कला, आचार्य ते शिर (देवनागरी लिपिनी)मस्तकनी लीटी साथे हकार अने रकार, तेमज उपाध्याय ते 'ई'कार छे–एम माया-हीकारमा पूर्वे जेम (कला, आकृति, तत्त्व वगेरे रूपे विचार कर्यो छे तेम अहीं मंत्रनी दृष्टिए नाद, कला, बिंदुरूपे) विचार 25 कर्यो छे // 351 // 12 // | (नाद) / (कला) / (सशिर हरू) | (ईकार) / (बिन्दु) | अरिहंत | सिद्ध / आचार्य / उपाध्याय साधु . 1. सरखावो-"जल-जलणाई सोलस पयत्थ थंभंतु आयरिया।" -न. स्वा. (प्रा. वि.) पृ. 262. 2. सरखावो-"इहलोइय लाभकरा उवज्झाया हुंतु भयसरणा // " गा. 5 / 3. "पावुच्चाडण-ताडणनिउणा साहू सया सरह // " गा. 5 / -न. स्वा. (प्रा.वि) पृ. 262.