________________ [संस्कृत नमस्कार स्वाध्याय अर्हन्तो वर्णान्तः रेफः सिद्धाः शिरश्च सूरिरिह / शुद्धकलोपाध्यायो दीर्घकला साधुरिति पश्च // 343 // 4 // अर्हन्तौ शशि-सुविधिजिनौ सिद्धाः(द्धौ) पनाम-वासुपूज्यजिनौ / धर्माचार्याः षोडश मल्लिः पार्थोऽप्युपाध्यायः // 344 // 5 // . सुव्रत-नेमी साधुस्त(धू तत्रार्हन् चन्द्रप्रभः रुनां शान्त्यै / सिद्धाः सिन्दूराभास्त्रैलोक्यवशीकृतिं कुर्युः // 345 // 6 // सिद्धाक्षररेफाकृतिर्वाग्वीजं वश्यमूर्ध्नि वदने वा / आज्ञाचक्रे वाऽरुणरोचि वश्यं तनोत्यथवा // 346 // 7 // . . (पंचपरमेष्ठीना ध्यान माटे हीकारना अंशोनुं आलंबन करतां-) वर्णनी अंते रहेलो 'ह' ते 10 अरिहंत, रेफ अथवा '' ते सिद्ध, (देवनागरी लिपिनी) सीधी लीटी-मस्तकनी लीटी '-'-ते सूरि, शुद्धकला '' ते उपाध्याय अने दीर्घकला '' ते साधु-एम (हीकारनी आकृतिना अवयवो-अंशो द्वारा) पांचे (परमेष्ठीओनो ह्रीकारमा समावेश कर्यो) छे // 343 // 4 // अरिहंत सिद्ध. | आचार्य उपाध्याय साधु श्रीचंद्रप्रभ अने श्रीसुविधिनाथ ते अरिहंत; श्रीपद्मप्रभ अने श्रीवासुपूज्य ते सिद्ध; (श्रीऋषभदेव, श्रीअजितनाथ, श्रीसंभवनाथ, श्रीअभिनंदन, श्रीसुमतिनाथ, श्रीसुपार्श्वनाथ, श्रीशीतलनाथ, श्रीश्रेयांसनाथ, श्रीविमलनाथ, श्रीअनन्तनाथ, श्रीधर्मनाथ, श्रीशांतिनाथ, श्रीकुंथुनाथ श्रीअरनाथ, श्रीनमिनाथ, श्रीवर्धमानस्वामी -ते)सोळ धर्माचार्य एटले सूरि, श्रीमल्लिनाथ अने श्रीपार्श्वनाथ ते उपाध्याय छे। श्रीमुनिसुव्रतस्वामी अने श्रीनेमनाथ ते साधु तरीके गणाय छे'। तेमा चन्द्र जेवी उज्ज्वल प्रभावाळा [श्रीचंद्रप्रभ (अने श्रीसुविधि20 नाथ,) जेओ श्वेत वर्णना छे ते] अरिहंतो रोगनी शांति (शांतिकृत्य) माटे छे। सिद्धो जे सिंदूर (लाल) वर्णना (श्रीपद्मप्रभ अने श्रीवासुपूज्य) छे ते त्रण लोकनुं वशीकरण' (वशीकरणकृत्य) करे छे // 344-345 // 5-6 // सिद्धनो अक्षर जे रेफ आकृति ते 'र' ए वाग्बीज छे। जेनुं वशीकरण कर होय तेना मस्तकमां, मुखमां अथवा आज्ञाचक्र (बे भ्रमरोनी वच्चेना स्थान)मां (रकारने चिंतववो) अगर तो रकारनुं अरुणरोचिलाल 25 किरणमय ध्यान धरतां ते वशीकरणकृत्य करे छे॥ 346 // 7 // 1. सरखावो-"ससि-सुविही अरिहंता सिद्धा पउमाभ-वासुपुजजिणा। धम्मायरिया सोलस पासो मल्ली उवज्झाया // 2 // सुब्वय-नेमी साहू // " –न. स्वा. (मा. वि.) पृ. 261. 2. श्रीमानतुंगसूरिए 'नवकारसारथवण' (गाथा 3, पृ. 261) मां अरिहंतनुं ध्यान करनाराओने माटे 30 अरिहंतो मोक्ष अने खेचरत्वरूप पौष्टिक कृत्य करे छे, ज्यारे अहीं रोगनी शांति द्वारा शांतिकृत्यरूप फल बताव्युं छे। 3. सरखावो-"तेलुक्कवसीयरणं मोहं सिद्धा कुणंतु भुवणस्स // " -न. स्वा. (प्रा. वि.) पृ. 262.