________________ [56-11] श्रीसिंहतिलकसूरिविरचितश्रीमन्त्रराजरहस्यान्तर्गतार्हदादि पञ्चपरमेष्ठिस्वरूपसंदर्भः॥ अर्हददेहाचार्योपाध्याय-मुनीन्द्रपूर्ववर्णोत्थः / प्रणवः सर्वत्रादौ, ज्ञेयः परमेष्ठिसंस्मृत्यै // 314 // 1 // अर्हत्-सिद्धाचार्योपाध्याय-मुनित्वरूपमर्हन्तः / * पूज्योपचार-देशक-पाठक-निविषयचित्तत्वात् / / 315 // 2 // प्रणवः प्रागुक्तार्थो, मायावर्णेऽईदादिपञ्चकताम् / .. अन्तश्चतुरधिविंशतिजिनस्वरूपमथो वक्ष्ये // 342 // 3 // 10 अनुवाद (ॐकार-) अरिहंत, अदेह (अशरीरी-सिद्ध), आचार्य, उपाध्याय अने मुनिना प्रथम वर्णोमाथी (अ+अ+आ+उ+म् = ॐ) निष्पन्न थयेलो प्रणवं पञ्चपरमेष्ठीना स्मरण अर्थे (मंगल रूपे) सर्वत्र प्रारंभमां ... आवे छे // 314 // 1 // 'अरिहंतो अरिहंत-सिद्ध-आचार्य-उपाध्याय-साधु स्वरूप छे, कारण के तेमनामां पूज्यता होवाथी तेओ अरिहंत छे; उपचारथी (द्रव्यसिद्धत्व होवाथी) तेओ सिद्ध छे; उपदेशकता होवाथी तेओ आचार्य छे पाठकता होवाथी तेओ उपाध्याय छे अने निर्विषय चित्त होवाथी तेओ साधुरूप छे॥ 315 // 2 // 15 (हीकार--) ऊपर प्रणवनो अर्थ कहेवामां आव्यो छे (एटले के ॐकार ते पंचपरमेष्ठीना प्रथम अक्षरो वडे 20 केवी रीते निष्पन्न थयो छे ए कहेवामां आव्यु छ)। हवे मायावर्ण-ड्रीकारना देहमा पंचपरमेष्ठी अने चोवीश तीर्थकरो केवी रीते छे ते समजावीश // 342 // 3 // 1. सरखावो– “अरिहंता असरीरा आयरिय उवज्झाय तहा मुणिणो। पंचक्खरनिप्पन्नो ॐकारो पंचपरमिट्ठी॥९॥" -न. स्वा. (प्रा. वि.) पृ. 263. 25