________________ विभाग] 'तत्त्वार्थसारदीपक' महाग्रन्थस्य संदर्भः साक्षात् सिद्धिपदं दातुं, क्षमं मन्त्रं स्मरान्वहम् / विश्वविघ्नहरं ज्येष्ठं, सर्वसिद्धनमः प्रजम् // 141 // "नमः सर्वसिद्धेभ्यः॥" इत्यादीन्यपराण्यत्र, सारमन्त्रपदानि च / उद्धृतानि श्रुतस्कन्धाज्जगद्धिताय योगिभिः // 142 // 'यानि निर्वेदबीजानि, मनःशान्तिकराणि च / ध्येयानि तानि सर्वाणि, बुधैः पदस्थसिद्धये // 143 // राग-द्वेषाक्षमोहाधरयो यान्ति क्षयं सताम् / साम्यं संवेगबोधादिगुणाः प्रादुर्भवन्ति च // 144 // संवरो निर्जरा मोक्षो, मनोजयश्च जायते / यैर्मन्त्रौधैः पदैः वर्णैः सारैर्दोषापहैः परैः // 145 // ते सर्वे मुनिभिध्येयाश्चिन्तनीया मुहुर्मुहुः। कथनीयाः परेषां च, भावनीया निरन्तरम् // 146 // जपनीयाश्च सर्वत्र, निश्चेतव्या स्वमानसे / श्रद्धेयाः स्वात्मसिद्धयर्थ, किं वृथा बहुजल्पनैः // 147 // 15 20 साक्षात् सिद्धिपद देवाने समर्थ एवा मंत्रनुं हमेशां तुं स्मरण कर; ते सर्व विघ्नोने हरनारो छे, ज्येष्ठ छे, अने 'सर्वसिद्ध-नमः' शब्दोथी निष्पन्न थयेलो' छे // 141 // ते मंत्र आ प्रकारे छे—“नमः सर्वसिद्धेभ्यः॥" * आ प्रकारे अहीं आ अने बीजां पण जे साररूप मंत्रपदो छे तेनो, योगीओए जगतना हितने माटे श्रुतस्कन्धमाथी उद्धार कर्यो छे॥१४२॥ . जे निर्वेदनां जनक अने मननी शांति करनारां बीजो छे ते बधां बीजोर्नु बुद्धिशाळी पुरुषोए पदस्थ ध्याननी सिद्धिने माटे ध्यान करवू // 143 // (ते मंत्रबीजोना ध्यानथी) सत्पुरुषोना राग, द्वेष, इंद्रियो अने मोहरूप शत्रुओ क्षय पामे छे अने समभाव, संवेग, बोध आदि गुणो प्रगट थाय छे // 144 // ___वळी जे दोषहर अने सारभूत पदो, वर्णो, के मंत्रसमूह वडे संवर, निर्जरा, मोक्ष अने मननो जय 25 थाय ते बंधानुं मुनिओए वारंवार ध्यान अने चिंतन करवू जोईए / ते बीजाने कहेवा (आपवा) जोईए अने तेनी निरंतर भावना करवी जोईए // 145-146 // . ते (मंत्रो)नो आत्मानी मुक्ति माटे सर्वत्र जाप करता रहेQ जोईए; पोताना मनमा तेनो निश्चय करवो जोईए; अने तेना उपर श्रद्धा राखवी जोईए। निरर्थक, बहु कहेवाथी शुं ! // 147 // ... 1. ज्ञा. श्लो. 111 / 2. शा. श्लो. 115 / 30