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________________ नमस्कार स्वाध्याय [संस्कृत एतत् पदस्थसद्धथानं, स्वाधीनं जपनादिभिः / सर्वत्र सुख-दुःखादिजातावस्थासु कोटिषु // 148 // कुर्वन्तु ध्यानिनो धीरा, स्वप्नेपि मा त्यजन्तु भोः। शयनासनसद्वार्ताबजनादौ शिवाप्तये // 149 // सन्मन्त्रजपनेनाहो, पापारिः क्षीयतेतराम् / मोहाक्षस्मरचौराद्यैः, कषायैः सह दुर्धरैः // 15 // मनः परीपहादीनां, जयः कर्मनिरोधनम् / निर्जरा कर्मणां मोक्षः, स्यात्सुखं स्वात्मजं सताम् // 151 // वीतरागमुनीन्द्राणां, ध्यानसिद्धिश्च केवलम् / त्यक्तरागादिदोषाणां, जिनैः प्रोक्ता न संशयः // 152 // मत्वेति रागदुद्देषाधरीन् हत्वा जिताशयाः। कषायाक्षभटैः सार्ध, क्षमा-तोषादिकायुधाः // 153 // नानाभेदं प्रकुर्वन्तु, पदस्थध्यानमूर्जितम् / सर्वयत्नेन सिद्धयर्थ, सर्वत्रालम्ब्य साम्यताम् // 154 // 15 __ध्यानी एवा धीरपुरुषोए आ सुंदर पदस्थ ध्यानने सर्वत्र सुख-दुःख-जन्म-जरादि अनेक अवस्थाओमा, जपादि वडे स्वाधीन (सुसाध्य ) करवू जोईए। तेनो स्वप्नमां पण त्याग न करवो। शयन-आसन-वार्तालापगमन वगेरेमां पण मोक्षप्राप्ति ध्येय सामे राखीने ते (ध्यान) करवू जोईए। सुंदर मंत्रना जापथी मोह, इन्द्रियो, कामरूप चोर वगैरे दुर्धर कषायो सहित पापशत्रु अत्यंत क्षीण थाय छे। तेथी सत्पुरुषोने मनोजय, परीषह-जय, कर्मनिरोध, कर्मनिर्जरा, मोक्ष अने स्वात्मामाथी उत्पन्न यतुं शाश्वत सुख प्राप्त 20 थाय छे॥॥१४८-१५१॥ ___ श्री जिनेश्वरोए कह्यं छे के "राग, द्वेष आदि दोषोथी रहित एवा वीतराग मुनिओने ज केवळ ध्यानसिद्धि थाय छे, एमां संशय नथी / " एम मानीने मनने जीतनारा साधकोए क्षमा, संतोष वगेरे शस्त्रो वडे कषायो अने इन्द्रियोरूप सुभटोने जीतीने, राग अने द्वेषरूप शत्रुओने हणीने अने सर्वत्र साम्यने धारण करीने सिद्धिने माटे सघळा प्रयत्नोथी समर्थ एवं विविध प्रकारचें पदस्थ ध्यान करवू जोईए॥१५२-१५४ // परिचय सोलापुरना श्री जीवराज जैन ग्रन्थालयमाथी 'तत्त्वार्थसारदीपक' नामनी एक हस्तलिखित प्रत मळी हती। प्रत घणी उपयोगी होई तेनी फोटोस्टेटिक नकल कढावीने श्री जैन साहित्य विकास मण्डलना पुस्तकालयमा राखवामां आवी छे। तेना पत्र 55 थी 65 एम अगियार पत्र परथी नमस्कारविषयक संदर्भ तारवीने अहीं अनुवाद सहित संपादित करेल छ। प्रतमां जणाव्युं छे तेम तेना कर्ता 30 भट्टारक श्रीसकलकीर्ति छ / तेओ भट्टारक श्रीपद्मनन्दिनी शिष्यशाखामांना एक हता। प्रस्तुत संदर्भमां 'पदस्थ ध्यान' विशे घणी उपयोगी समज प्राप्त थाय छे; जो के तेना पर श्री '. शुभचन्द्राचार्यकृत 'ज्ञानार्णव'नी घणी मोटी असर छे अने ते बन्नेना श्लोको सरखावतां तुरत समजाय छ।
SR No.004318
Book TitleNamaskar Swadhyay Sanskrit Vibhag
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhurandharvijay, Jambuvijay, Tattvanandvijay
PublisherJain Sahitya Vikas Mandal
Publication Year1962
Total Pages398
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size10 MB
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