________________ विभाग 'तत्त्वार्थसारदीपक' महाग्रन्थस्य संदर्भः इत्येतद् ध्यानमाधाय, पूर्व विघ्नोपशान्तये / पश्चात् सप्ताक्षरं मन्त्रं, जपेदोकारवर्जितम् // 130 // मन्त्र कारपूर्वोऽयं, विश्वाभीष्टार्थसिद्धिदः। एकोछनेककार्थ, मुक्त्यर्थं प्रणवोज्झितम् // 131 // "णमो अरिहंताणं // " चतुर्विंशतितीर्थेशनमस्कारोद्भवं परम् / स्मर मन्त्रं जिनेन्द्रादिपददं जन्मघातकम् // 132 // "श्रीमद्वषभादि-वर्धमानान्तेभ्यो नमः॥" सुनिष्कम्पं मनः कृत्वा, पापारातिनिकन्दिनीम् / जिनेन्द्रमुखजां विद्या, महतीं पापभक्षिणीम् // 133 // विश्वविद्यासु (1) सिद्धान्तदानदक्षां जगत्रुताम् / ध्यायन्तु प्रत्यहं धीरा, अर्हन्मुखाजवासिनीम् // 134 // मुनेरस्याः प्रभावेन, पापपङ्कः प्रलीयते।। चेतः प्रशान्तिमायाति, विज्ञानं जायते परम् // 135 // विघ्नोना समूहनी शान्ति माटे पहेलां आ रीतन (उपर्युक्त मंत्रन) ध्यान करीने, ते पछी ॐकारथी 15 रहित एवा सात अक्षरना मंत्रनो जाप करवो // 130 // .. सघळी इच्छित वस्तुओनी सिद्धिने आपनारो ॐकारपूर्वकनो आ एक ज मंत्र अनेक कार्यो माटे थाय छे। मुक्तिने माटे ॐकारथी रहित (एवा आ ज मंत्र) नुं ध्यान करवू // 131 // ते मंत्र आ रीते छे' - "णमो अरिहंताणं॥" चोवीश तीर्थंकरोना नमस्कारथी उत्पन्न थयेल श्रेष्ठ मंत्र, जे तीर्थंकर आदि पदवीने आपनारो छे 20 अने जन्मनो नाश करनारो छे, तेनुं तुं स्मरण कर // 132 // ते मंत्र आ प्रकारे छे—“श्रीमवृषभादि-वर्धमानान्तेभ्यो नमः॥" मनने सारी रीते निश्चळ बनावीने पापरूपी शत्रुनां मूळने ऊखेडी नाखनारी अने श्रीजिनेन्द्रना मुखथी नीकळेली आ महान पापभक्षिणी महाविद्या छे / ते सिद्धान्तनुं दान करवामां प्रवीण, जगतना मनुष्यो वडे नमस्कृत अने अरिहंत भगवंतना मुखरूपी कमळमां रहेनारी छ। तेनु, हे धीर मनुष्यो! तमे 25 सदा ध्यान करो // 133-134 // - आ(विद्या)ना प्रभावथी मुनिनो पापरूप मळ नाश पामे छे; तेनुं चित्त शांत बने छे अने तेने श्रेष्ठ एवं विज्ञान प्राप्त थाय छे॥ 135 // 1. ज्ञा. श्लो. 101 / 2. ज्ञा. श्लो. 102 / 3. ज्ञा. श्लो. 103 / 4. शा. श्लो. 104 /