________________ विभाग] _ 'तत्त्वार्थसारदीपक' महाग्रन्थस्य संदर्भ अनन्यशरणीभूय जपेद् यस्त्रिजगद्गुरुम् / इमां चतु:शतान्तं स, चतुर्थस्य फलं भजेत् // 97 // अनया विद्यया पुंसां, जन्म-मृत्यु-ज[स] द्रुतम् / हीयन्ते कर्मभिः सार्ध, ढौकन्ते शिवसम्पदः // 98 // "ॐ ह्रां ही हूँ ह्रौ इः असि आउ सा नमः // " अर्हत्-सिद्ध-विधासाधुधर्मान् केवलिभाषितान् / विश्वमाङ्गल्यकर्तृच, विश्वलोकोत्तमान् परान् // 99 // विश्वशरण्यभूतांश्च, ध्यायन्तु तत्पदार्थिनः / चतुरोज चतुर्मङ्गलाथैः पदैः परैः सदा // 10 // लोकोत्तमपदाः पूज्याः, शरण्याचाहदादिकाः / एतद्धयानवतां ध्यानान्मङ्गलानि पदे पदे // 101 // संपद्यन्तेज वाऽमुत्र, सम्पदस्त्रिजगद्भवाः / धर्मार्थकाम-मोक्षार्थाः, प्रणश्यन्त्यापदोऽखिलाः // 102 // "चत्तारि मंगलं / अरिहंता मंगलं / सिद्धा मंगलं / साहू मंगलं / केवलिपण्णत्तो धम्मो मंगलं / जे मनुष्य त्रण जगत्ना गुरु श्रीअर्हतना अनन्य शरणे जई ए विद्यानो चार सो बार जाप करे छे ते उपवासर्नु फळ मेळवे छे // 97 // आ विद्याथी मनुष्यनां कर्मोनी साथे ज जन्म, मृत्यु अने जरा (वृद्धावस्था) जलदीथी घटे छे अने ते शिवसंपत्तिने प्राप्त करे छे॥९८॥ ते विद्या आ प्रकारे छे: 20 "ॐ हाँ ही हूँ हौ हः असि आ उ सा नमः // ". विश्वनुं मंगल करनार, जगतना लोकोमा सर्वोत्तम अने जगतने शरण्यभूत एवा अरिहंत, सिद्ध त्रण प्रकारे (1) साधु अने केवली भगवंतोए उपदेशेल धर्म-ए चारेनुं 'चत्तारि मंगल' आदि उत्तम पदोथी ते पदवीना अर्थी मनुष्यो हमेशां ध्यान करो // 99.100 // "ते (उपर्युक्त) अरिहंत वगेरे लोकोमा उत्तम पदवाळा छे, पूज्य छे अने शरण्यभूत छे," आ प्रकारे ध्यान करनाराओने तेमना ध्यानना प्रभावथी पगले पगले मंगल प्रगटे छे। त्रण जगतमा रहेली संपत्तिओ अने धर्म, अर्थ, काम अने मोक्षरूप पुरुषार्थो आलोक अने परलोकमा प्राप्त थाय छे; तथा सर्व आपत्तिओ नाश पामे छे'॥१०१-१०२॥ ते मंत्र आ प्रकारे छे: "चत्तारि मंगलं। अरिहंता मंगलं। सिद्धा मंगलं। साहू मंगलं। केवलिपण्णत्तो 30 धम्मो मंगलं।" 1. शा. लो. 57 /