________________ [संस्कृत नमस्कार स्वाध्याय विद्यां षड्वर्णसंयुक्तामर्हत्-सिद्धसुनामजाम् / तचभूतां जगत्सारां, जपन्तु ध्यानिनोऽनिशम् // 9 // ये जपन्ति त्रिशुद्धथेमा, विद्यां त्रिशतसम्मिताम् / संवरेण समं तेषां, चतुर्थतपसः फलम् // 91 // " अरहंत-सिद्ध॥" . चतुर्वर्णमयं मन्त्रं, चतुर्वगैकसाधनम् / अर्हन्नामभवं विश्वज्येष्ठं जपन्तु धीधनाः॥९२॥ (अरिहंत) आदिमं चाहतो नाम्नोऽकारं पञ्चशतप्रमम् / वरं जपेत् त्रिशुद्धया यः, स चतुर्थफलं श्रयेत् // 93 // एतत् स्वल्पं फलं प्रोक्तं, शाखे रुच्याप्तये सताम् / किन्त्वमीषां फलं सम्यक्, संवरो निर्जरा शिवम् // 94 // पञ्चसद्गुरुनामाद्यक्षरोद्भतां जगताम् / पञ्चवर्णमयीं सारां, महाविद्यां समुद्धताम् // 15 // बीजबुद्धया श्रुतस्कन्धाम्बुधेळयन्तु सद्धाः। हाँकारादिमहापञ्चतत्वोकारोपलक्षिताम् // 96 // अरिहंत अने सिद्धनां सुंदर नामोमांथी उत्पन्न थयेली छ वर्णोवाळी विद्या तत्त्वभूत छे अने जगतमा सारभूत छे तेनो ध्यानी पुरुषो सदा जाप करो // 90 // जे पुरुषो मन, वचन अने कायानी शुद्धिथी आ विद्यानो त्रणसो वार जाप करे छे, तेमने संवर थाय छे एटले आवतां कर्मो रोकाय छे अने साथे साथे उपवासतपनुं फळ मळे छे' // 91 // .. 20 ते विद्या आ प्रकारे छे–“अरहंत-सिद्ध॥" / विश्वमा महान् एवो अर्हन् नाममाथी उत्पन्न थयेलो चार वर्णमय (अरिहंत) मंत्र चार वर्ग (धर्म, अर्थ, काम अने मोक्ष) ने साधनारो छे, तेनो बुद्धिशाळी पुरुषो जाप करें // 92 // अहंत नामना आदि अकारनो (अरिहंत) मन, वचन अने कायानी शुद्धि वडे जे साधक पांचसो वार जाप करे छे ते एक उपवासनुं फळ मेळवे छे // 93 // सज्जन पुरुषोने रुचि उत्पन्न करवा माटे शास्त्रमा दर्शावेलं आ स्वल्प फळ छे; परन्तु आ मंत्रोनुं वास्तविक फळ तो संवर, निर्जरा अने मोक्ष छे // 94 // जगते जेने नमस्कार कर्यो छे एवी, पांच सद्गुरुओना नामना प्रथम अक्षरोमांथी निष्पन्न थयेली अने सारभूत एवी (असिआ उ सा)पांच वर्णमयी महाविद्या, जेनो श्रुतस्कन्धरूप समुद्रमांथी बीज-बुद्धि लब्धिथी उद्धार करायेलो छे, तेनो विद्वान् पुरुषो जाप करो। ते विद्या हाकार वगेरे (हाँ ही हूँ ह्रौ हू:) पांच महातत्त्वो 30 अने ॐकारथी उपलक्षित छे // 95-96 // 1. ज्ञा.श्लो.५०। 2. ज्ञा. श्लो.५१। 3. शा. श्लो.५३। 4. शा.श्लो. 54 / 5. शा. श्लो.५५।