________________ विभाग] 'तत्त्वार्थसारदीपक' महाप्रन्थस्य संदर्भः विज्ञायेति सुखे दुःखे, पथि दुर्गे रणे स्थितौ / आसने शयने स्थाने, रोगक्लेशादिके सति // 85 / / सर्वावस्थासु सर्वत्र, महामन्त्रः शिवार्थिभिः / जपनीयोऽथवा ध्येयो, न मोक्तव्यो क्वचिद्धदः॥८६॥ वाचो वा विश्वकार्याणां, सिद्धयेत्र परत्र च। तथासंख्या विधेयास्य, सहस्र-लक्ष-कोटिभिः // 87 // " णमो अरहंताणं, णमो सिद्धाणं, णमो आइ(य)रियाणं, णमो उवज्झायाणं, णमो लोए सव्वसाहूणं // " * पञ्चसद्गुरुनामोत्थां षोडशाक्षरभूषिताम् / महाविद्यां जगद्विद्यां, स्मर सर्वार्थसिद्धिदाम् // 88 // अस्याः शतद्वयं ध्यानी, जपेत तल्लीनमानसः। * अनिच्छन्नप्यवामोत्युपवासपरं फलम् // 89 // “अर्हत्-सिद्धाचार्योपाध्यायसर्वसाधुभ्यो नमः॥" ए प्रमाणे जाणीने सुखमां, दुःखमां, मार्गमां, पर्वतमां, युद्धस्थानमां, बेसवामां, शयनस्थानमा अने रोग तेमज कलह आवी पडे त्यारे-सघळी अवस्थामां अने सघळे स्थळे मोक्षना अर्थीओए आ महामंत्रनो 15 जाप करवो; अथवा आ (मंत्र)नुं ध्यान करवू पण कदापि हृदयमांथी तेने दूर न करवो / / 85-86 // . आ लोक अने परलोकमां समस्त कार्यो अने वाणीनी सिद्धि माटे आ मंत्रनो हजार, लाख अने करोड संख्या प्रमाणनो जाप करवो // 87 // ते मंत्र आ प्रकारे छे:"णमो अरहंताणं, णमो सिद्धाणं, णमो आइ(य)रियाणं, णमो-उवझायाणं, णमो 20 लोए सव्वसाहूणं // " पांच सद्गुरुओना नामथी निष्पन्न थयेल जे सोळ अक्षरोथी शोभती 'महाविद्या' छे, ते सघळा अर्थनी सिद्धि आपनारी जगत्-विद्या छे, तेनुं तुं स्मरण कर // 88 // .. आ (विद्या)मा एकाग्र मनवाळो ध्यानी पुरुष बसो वार आ विद्यानो जाप करे तो न इच्छवा छतांये उपवास, सुंदर फळ मेळवे छे' // 89 // ते विद्या आ प्रकारे छे :"अर्हत्-सिद्धाचार्योपाध्यायसर्वसाधुभ्यो नमः॥" 25 .. 1. ज्ञा. श्लो. 48 / 2. ज्ञा. श्लो. 49 /