________________ 10 नमस्कार स्वाध्याय [संस्कृत नासाग्रे निश्चलं वा भ्रूलतान्तरे महोज्वलम् / तालुरन्ध्रण वाऽऽयान्तं, विशन्तं वा मुखाम्बुजे // 48 // सकृदुच्चारितो येन, मन्त्रोऽयं वा स्थिरीकृतः। हृदि तेनापवर्गाय, पाथेयं स्वीकृतं परम् // 49 // यदैवेष महामन्त्रश्चित्ते धत्ते स्थिति मुनेः। तदैव कर्मसन्तानप्रारोहः प्रविशीर्यते // 50 // मत्वेतीदं महत्तत्त्वमहनामोद्भवं बुधाः। विश्वकल्याणतीर्थेशं, श्रीदं ध्यायन्तु मुक्तये // 51 // सर्वावस्थासु सर्वत्र, जपन्तु वा निरन्तरम् / विशुद्ध मानसे मन्त्रं, निश्चलं स्थापयन्तु वा // 52 // 'अहं' // ततो हकारमात्रं च, रेफ-बिन्दु-कलोज्झितम् / सूक्ष्मं प्रभास्वरं चन्द्ररेखाभं शान्तिकारणम् // 53 // अणिमादिमहीनां, जनकं चिन्तयेत् सुधीः / अनुच्चार्य हृदा नित्यं, भवभ्रमणहानये // 54 // 'ह'॥ 15 ते मन्त्रराज नासिकाना अग्रभाग पर स्थिर छे, अथवा भ्रूमध्यमां अत्यन्त प्रकाशमान छे, अथवा तालुरन्ध्रयी आवे छे अने मुखकमलमा प्रवेश करे छे, एवं ध्यान करवू // 48 // जेणे एक ज वार आ मन्त्रनो उच्चार कर्यो छे अथवा हृदयमा स्थिर कर्यो छे ते पुरुषे मोक्ष माटे उत्तम भातुं ग्रहण कयु छे॥४९॥ मुनिना चित्तमां आ महामंत्र स्थिरता करे त्यारथी ज (अर्थात् मुनिना चित्तमां आ महामंत्रनी 20 स्थिरता थतांनी साथे ज) कर्मोनी परंपरानो अंकुरो खरवा मांडे छे' // 50 // ए रीते अर्ह नाममाथी उत्पन्न थयेला आ महातत्त्वने जाणीने विश्वनुं कल्याण करवामां श्री तीर्थकर स्वरूप अने मोक्ष (अने भुक्ति) ने आपनार एवा ते तत्त्व(अर्ह) विद्वानोए मुक्ति माटे ध्यान कर जोईए // 51 // ____ अथवा सर्व अवस्थाओमां सर्वत्र निरंतर ते मन्त्राधिराजनो जाप करवो जोईए / अथवा विशुद्ध 25 मनमां ते मन्त्रने निश्चल रीते स्थापवो जोइँए // 52 // ते मन्त्र आ छे—'अहं' 'ह' कार ते पछी बुद्धिमान पुरुष संसारभ्रमणनी हानि माटे उच्चार कर्या विना मन वडे केवल हकारने रेफ, कला अने बिन्दुथी रहित, सूक्ष्म, प्रकाशमान अने चन्द्ररेखा जेवो चिंतवे / आवो 'ह'कार शान्ति अने अणिमादि महर्द्धिओनुं कारण छे // 53-54 // ते मन्त्र आ छे—'ह'। 1 शा. श्लो. 16 / 2 ज्ञा. श्लो, 14 / 3 ज्ञा. श्लो. 15 / 4. ज्ञा. श्लो, 21 / . 5. शा, श्लो, 2-3, पृ. 392 /