________________ विभाग] 'तत्त्वार्थसारदीपक'महाग्रन्थस्य संदर्भः देवाम(सु)रनतं मिथ्यादुर्बोधध्वान्तभास्करम् / शुक्लं मूर्द्धस्थचन्द्रांशुकलापव्याप्तदिङ्मुखम् // 42 // हेमाजकर्णिकासीनं निर्मलं दिक्षु खाङ्गणे / संचरन्तं च चन्द्राभं, जिनेन्द्रतुल्यमूर्जितम् // 43 // ब्रह्मा कैश्चिद्धरिः कैश्चिद्, बुद्धः कैश्चिन्महेश्वरः। शिवः सर्वैस्तथेशानो, वर्णोऽयं कीर्तितो महान् // 44 // मन्त्रमूर्ति किलादाय, देवदेवो जिनः स्वयम् / सर्वज्ञः सर्वगः शान्तः, साक्षादेष व्यवस्थितः // 45 // 'ई' // ज्ञानबीजं जगद्वन्ध, जन्म-मृत्यु-जरापहम् / अकारादि-हकारान्तं, रेफबिन्दुकलाङ्कितम् // 46 // झुक्ति-मुक्त्यादिदातारं, स्रवन्तममृताम्बुभिः / . . मन्त्रराजमिमं ध्यायेद्, धीमान् विश्वसुखावहम् // 47 // 10 10 . (ते मंत्र) देवो अने असुरो वडे नमस्कार करायेल, मिथ्याज्ञानरूप अन्धकार (ने दूर करवा) माटे सूर्य समान, पोताना उपर रहेला चन्द्र(कला)मांथी नीकळता किरणोना समूह वडे दिगंतोने व्याप्त करतो, : सुवर्णकमलनी कर्णिकामां विराजमान, निर्मल, दिशाओमां अने आकाशरूपी आंगणामां संचरता चन्द्र समान, 15 परम सामर्थ्यशाळी अने श्रीजिनेन्द्रतुल्य छे' // 42-43 // - आ महान् वर्ण (ई) ने ज केटलाक ब्रह्मा, केटलाक हरि, केटलाक बुद्ध, केटलाक महेश्वर, केटलाक शिव तथा केटलाक ईशान कहे छे // 44 // खरेखर ! आ मंत्रना रूप(आकृति)ने धारण करीने स्वयं देवाधिदेव, सर्वज्ञ, सर्वव्यापी अने शान्त एवा श्री जिनेश्वर भगवान् साक्षात् रहेला छे // 45 // ते मन्त्र आ छे–'ई। 20 मन्त्राधिराज अहं (अथवा) बुद्धिमान पुरुषे जेनी आदिमां 'अ' छे; अंतमा 'ह' छे अने जे रेफ, कला अने बिन्दुथी सहित छे; जे ज्ञानबीज छे; जगवंद्य छे; जन्म, मृत्यु अने जराने दूर करनार छे; भुक्ति (सांसारिक सुखो) तेमज मुक्तिने आपनार छे; जेमांथी अमृतजळ झरी रयुं छे अने जे सर्व सुखोने लावनार छे, ते आ मन्त्रराज 'अहं' नुं ध्यान करवू जोईएँ // 46-47 // 25 1. ज्ञा. श्लो. 9-10 / 2. ज्ञा. श्लो. 11 / 3 ज्ञा. श्लो. 12 / 4 ज्ञा. श्लो. 13 / .