________________ [संस्कृत नमस्कार स्वाध्याय चतुर्विंशतिपत्राढथे, कञ्ज सत्कर्णिके हृदि / पञ्चविंशान् ककारादि-मान्तान् ध्यायेत् स व्यन्जनान् // 37 // ततो वदनराजीवे, हैमे पत्राष्टभूषिते / चिन्तयेच्छेषवर्णाष्टौ, यकारादीन् प्रदक्षिणम् // 38 // इमां प्रसिद्धसिद्धान्तप्रसिद्धां वर्णमातृकाम् / ध्यायेद् यः स श्रुताम्भोधेः, पारं गच्छेच्च तत्फलात् // 39 // अथ मन्त्रं गणाधीशं, विश्वतत्चैकनायकम् / आदिमध्यान्तसद्भेदैः, स्वरव्यजनसंभवम् // 40 // ऊर्ध्वाधोरेफसंयुक्तं, सकलं बिन्दुभूषितम् / एकाग्रमनसा ज्ञानिन् ! मन्त्रराजमिमं स्मर // 41 // हृदयमां सुंदर कर्णिका सहित चोवीश पत्रवाळा कमळमां 'क' थी 'म' सुधीना पच्चीश व्यञ्जनोनुं तेणे (योगीए) ध्यान करवू // 37 // ए पछी मुखमां सुवर्णकमळना आंठ पत्रोमां प्रदक्षिणारूपे (क्रमशः फरता) बाकी रहेला 'य' आदि (य र ल व श ष स ह) आठ वर्णोनु चिंतन करें, // 38 // ___ फलश्रुति ___ आ प्रकारनी (उपर जणावेली) प्रसिद्ध सिद्धांतोमां विख्यात एवी वर्णमातृकानुं जे पुरुष ध्यान करे ते तेना फलस्वरूपे श्रुतसागरना पारने पामे // 39 // मन्त्राधिराज हैं हवे गणाधीश मन्त्र (ह विशे जणावे छे के-) जे सर्व तत्त्वोनो मुख्य नायक छे, जे आदि 20 (अ), मध्य (र) अने अंत (ह्)-ए रीते थता भेदो वडे स्वर अने व्यञ्जनथी. उत्पन्न थाय छे, जे उपर अने नीचे रेफथी युक्त छे, जे कलाथी सहित छे अने जे बिन्दुथी शोभे छे; ते आ मन्त्रराजे (ई) नुं हे ज्ञानी! तुं एकाप्र मनथी स्मरण करें // 40-41 // 1. ज्ञा. श्लो. 4 / 2. ज्ञा. श्लो. 5 / 3. ज्ञा. श्लो. 6 / 4. ज्ञा. श्लो. 7 / 5. 'ब्रह्मविद्याविधि' नामक अप्रकट जैन ग्रंथमां आ 'ई'ने मन्त्रराज तरीके ओळखावतां जणाव्युं छे के-- ऊर्ध्वाधोरेफमाक्रान्तं, सकलं बिन्दुलाञ्छितम् / अनाहतयुतं तत्वं मन्त्रराजं प्रचक्षते // 1 // -ह. लि. पत्र 9 6. ज्ञा. श्लो.८।