________________ [55-10] भट्टारक-श्रीसकलकीर्तिरचित-तत्त्वार्थसारदीपक'-महाग्रन्थस्य संदर्भः [पदस्थ-भावना प्रकरणम्] अथ पिण्डस्थमाख्याय, वक्ष्ये पदाक्षरोद्भवम् / ध्यानं पदस्थमत्यन्तस्वाधीनं मुक्तये सताम् // 33 // पदान्यादाय साराणि, योगिभिर्यद् विधीयते / सिद्धान्तबीजभूतानि, ध्यानं पदस्थमेव तत् / / 34 // ध्यायेदनादिसिद्धान्तविख्यातां वर्णमातृकाम् / आदिनाथमुखोत्पन्नां, विश्वागमविधायिनीम् // 35 // पत्रषोडशसंयुक्ते, कमले नाभिमण्डले / प्रतिपत्रं भ्रमन्ती स, स्मरेद् द्वथष्टस्म(स्व)रावलीम् // 36 // 'अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ऋ, ऋ, ल, लु, ए, ऐ, ओ, औ, अं, अः॥' 10 अनुवाद * पिण्डस्थ ध्यान विशे जणाव्या पछी-हवे हुं पद अने अक्षरोथी (अथवा पदना अक्षरोथी) उत्पन्न थता एवा 'पदस्थ ध्यान' विशे कहीश / ए (पदस्थ ध्यान) अत्यंत स्वाधीन छे तेथी ते 15 सत्पुरुषोने मुक्ति माटे (सुसाध्य) थाय छे // 33 // * सिद्धान्तना बीजभूत सार पदोने अवलम्बीने योगीओ जे ध्यान करे छे, ते ज 'पदस्थ ध्यान' कहेवार्य छे // 34 // वर्णमालानुं ध्यान श्री आदिनाथ भगवंतना मुखथी निकळेली, सघळा आगमोनी रचना करनारी अने अनादि- 20 सिद्धान्तमा विख्यात एवी वर्णमातृका (सिद्धमातृका)नुं ध्यान करवू जोईऐं // 35 // नाभिमंडळमां सोळ पत्रवाळा कमळना प्रत्येक पत्र उपर अनुक्रमे फरती सोळ स्वरोनी श्रेणिर्नु स्मरण करवू // 36 // - ते सोळ स्वरो आ प्रकारे छे—'अ आ इ ई उ ऊ ऋ ऋ ल ल ए ऐ ओ औ अं अः।' * ग्रन्थकारे पदस्थ-ध्यान विषे 'ज्ञानार्णव'नो आधार लीधो होय एम लागे छे, कारण के केटलाये श्लोकोनं कर थोडा फेरफार साथे आमा निरूपण छे। तेनी सरखामणी माटे 'ज्ञानार्णव'ना प्रकरण 38 पृ. 387 थी श्लोकोनो अंक अहीं नोंधीए छीए। 1. ज्ञा. श्लो. 1 / 2. ज्ञा. श्लो. 2 / 3. ज्ञा. श्लो. 3 /