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________________ प्रस्तावना परलोकसिद्धि-इसमें धर्मोत्तर ने परलोक की सिद्धि की है। मलसंस्कृत ग्रन्थ , उपलब्ध नहीं है किन्तु उसका तिब्बती अनुवाद उपलब्ध है जो पूर्वोक्त काश्मीरी पंडित भव्यराज तथा लामा त्-छब्-जि-म-ग्रग्स ने किया था-देखो Mdo. cxii. 15.. . क्षणभंगसिद्धि-इसमें बौद्धसंमत क्षणिकवाद का समर्थन किया है। मूल संस्कृत नष्ट हो गया है किन्तु तिब्बती अनुवाद उपलब्ध है। यह अनुवाद भी काश्मीरी पंडित भव्यराज और लामा ब्लो-ल्दन् शेष-रब ने किया है-Mdo. cxii. 17. प्रमाणविनिश्चयटीका-धर्मकीर्ति के प्रमाणविनिश्चय की टीका है। दुर्वेकने भी इसका उल्लेख विनिश्चयटीका के नाम से किया है। मूलसंस्कृत उपलब्ध नहीं है किन्तु तिब्बती अनुवाद उपलब्ध है। काश्मीर के पंडित परहितभद्र और लामा ब्लो-ल्दन / शेष-रब ने अनुवाद किया है-Mdo. cix, cxi. (4) न्यायबिन्दुपूर्वपक्षसंक्षेप-यह आचार्य कमलशील ने लिखा है। ये सुप्रसिद्ध आचार्य शान्तरक्षित के शिष्य थे, अतएव उनके समकालीन हैं। इनका जन्म समय ई० 713. के आसपास है ऐसा डॉ० भट्टाचार्य ने निश्चित किया है। इन्होंने इसके अतिरिक्त तत्त्वसंग्रह की भी टीका लिखी है। ये दोनों ग्रन्थ तिब्बती भाषा में भी अनूदित हुए हैं। पूर्वपक्षसंक्षेप मूल संस्कृत में उपलब्ध नहीं है। इस ग्रन्थ में पूर्वपक्षोंका संक्षेप में निरूपण होगा ऐसा नाम से प्रतीत होता है। (5) न्यायबिन्दुपिण्डार्थ-इसके लेखक हैं जिनमित्र। इनका समय श्री राहुल जी ने ई० 825 दिया है, किन्तु विद्याभूषण ने ई० 1025 दिया है। इसमें न्याय- : बिन्दु का तात्पर्यार्थ वणित हो ऐसा नाम से पता चलता है। मूल संस्कृत ग्रन्थ उपलब्ध नहीं है, किन्तु भारतीय पंडित सुरेन्द्रबोधि और लामा ये-शेष-सदे ने जो तिब्बती अनुवाद किया है वह उपलब्ध है-Mdo-Cxi. 4. 7. न्यायबिन्दुटीका के टिप्पण (1) मल्लवादीकृत धर्मोत्तरटिप्पण-न्यायबिन्दु की धर्मोत्तरटीका का एक टिप्पण मल्लवादी आचार्य ने लिखा है। उसकी प्रतियाँ जेसलमेर भांडार में तथा पाटन के भांडार में विद्यमान हैं। उन प्रतियों के प्रथम परिच्छेद के अन्त में तो सिर्फ "लघुधर्मोत्तरटिप्पणके प्रथमः परिच्छेदः" ऐसा वाक्य है। किन्तु द्वितीय और तृतीय के अन्त में मल्लवादी आचार्य का नाम है-“इति श्रीमल्लवाद्याचार्यविरचिते धर्मोत्तरटिप्पणके द्वितीयः परिच्छेदः समाप्तः।" "इति धर्मोत्तरटिप्पणके श्रीमल्लवाद्याचार्यकृते ततीयः परिच्छेदः समाप्तः।" अतएव यह निश्चय होता है कि यह टिप्पण आचार्य मल्लवादी का है। र धर्मोत्तरप्रदीप पृ० 3, 33, 41, 44, 70, 72, 73 2 तत्त्वसंग्रह, प्रस्तावना पृ० 19 3 वादन्याय परिशिष्ट पु. 9 4 History of Indian Logic, p. 340
SR No.004317
Book TitleDharmottar Pradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania
PublisherKashiprasad Jayswal Anushilan Samstha
Publication Year1956
Total Pages380
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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