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________________ प्रस्तावना आचार्य धर्मकीति के सात ग्रन्थ ये हैं १-'प्रमाणवार्तिक, २-प्रमाणविनिश्चय, ३-न्यायबिन्दु, ४-२हेतुबिन्दु ५'वादन्याय, ६-संबंधपरीक्षा और ७-संतानान्तरसिद्धि। इसके अतिरिक्त प्रमाणवातिक के स्वार्थानुमान परिच्छेद' की तथा संबंधपरीक्षा की टीका भी स्वयं धर्मकीति ने लिखी हैं। बुदोनं के अनुसार धर्मकीति के ग्रन्थों का विभाजन प्रधान और पूरक ग्रन्थों में है। न्यायबिन्दु की रचना तीव्रबुद्धि पुरुषों के लिए, प्रमाणविनिश्चय' का निर्माण मध्यमबद्धि के . लिए और प्रमाणवातिक की रचना मन्दबुद्धि पुरुषों के लिये की गई है। ये ही तीनों ग्रन्थ प्रधान हैं जिनमें सब प्रमाणों का विवेचन किया गया है। शेष चार पूरक ग्रन्थों में किसी में भी प्रत्यक्ष का विशेष विवरण नहीं मिलता किन्तु स्वार्थानुमान से सम्बद्ध हेतु को निरूपण .. हेतुबिन्दु नामक ग्रन्थ में है और सम्बन्धका निरूपण सम्बन्धपरीक्षा में है। वादन्याय में परार्थानुभान से संबद्ध विषयों का अर्थात् परार्थानुमान के अवयवों का तथा जय-पराजय की . व्यवस्था कैसे हो इसका विशेष निरूपण है। सन्तानान्तरसिद्धि में विज्ञानवाद में सांवृतिक दृष्टि से स्वभिन्न संतान का अनुमान कैसे होता है यह बताया गया है। दिग्न.ग की तरह धर्मकीति भी दक्षिण में त्रिमलय में ब्राह्मणकुल में पैदा हुए। प्रारंभिक विद्या उन्होंने ब्राह्मणदर्शन की ली। वसुबन्धु के शिष्य धर्मपाल जो अत्यंत वृद्ध हो गए थे उनके पास बौद्धदर्शन का विशेषरूप से अध्ययन करने की दृष्टि से धर्मकीर्ति नालन्दा आए। उनको तर्कशास्त्र में विशेष रुचि थी अतएव दिग्नाग के शिष्य ईश्वरसेन के : संपर्क में रहकर प्रमाणशास्त्र का अध्ययन किया और अपनी प्रतिभा के बल से दिग्नाग के प्रमाणशास्त्र में ईश्वरसेन भी आगे बढ़ गए। फिर अपना जीवन उन्होंने वादविवाद और प्रमाणवातिक आदि ग्रन्थों की रचना में बिताया, और अंत में कलिंग देश में मृत्यु के वश हुए। लामा तारानाथ ने धर्मकीति का जो जीवनवृत्त दिया है उसका यह सारांश है। / संस्कृत में उपलन्ध है और प्रकाशित है। 2 हेतुबिन्दु की टीका संस्कृत में उपलब्ध है किन्तु मूल को तिब्बती से पुनः संस्कृत किया गया है। / प्रायः इसकी सभी कारिका प्रमेयक० प० 503-511 और स्याद्वादर० 10812 में उदधत हैं। श्री राहल जी ने भी प्रमाणवार्तिकभाष्य की भूमिका में कारिकाओं को उद्धृत किया है। 4 बुदोन ने लिखा है कि काश्मीरी पंडित ज्ञानश्री के मतानुसार प्रमाणविनिश्चय ग्रन्थ प्रमाणसमुच्चयका वार्तिक नहीं है किन्तु धर्मोत्तर तो उसे प्रमाणसमुच्चय का वार्तिक मानते हैं और यही मत ठीक भी है-Bu-ston : History of Buddhism, p. 45. 5 Buddhist Logic Vol. I. p. 35.
SR No.004317
Book TitleDharmottar Pradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania
PublisherKashiprasad Jayswal Anushilan Samstha
Publication Year1956
Total Pages380
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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