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________________ 40 कातन्त्ररूपमाला नामिकरेभ्य: पर: प्रत्ययविकारागमस्थ: सि: षमापद्यते नुविसर्जनीयषान्तरोऽपि पुरुषेषु / नीतक:- . पुरुषः, पुरुषौ, पुरुषाः / हे पुरुष, हे पुरुषौ, हे पुरुषाः / पुरुषम्, पुरुषौ, पुरुषान् / पुरुषेण, पुरुषाभ्याम्, पुरुषैः / पुरुषाय, पुरुषाभ्याम्, पुरुषेभ्यः / पुरुषात्, पुरुषाभ्याम्, पुरुषेभ्यः / पुरुषस्य, पुरुषयोः पुरुषाणाम् / पुरुषे, पुरुषयोः, पुरुषेषु // एवं धर्म वीर वेद वृक्ष सूर्य सागर स्तम्भ वाण मृग दन्त राघव मास पक्ष शिव शैल गुह्यक व्रात गण्ड कट कपाट नाग शङ्कर घट पटादय: / पूर्वपरयोरर्थोपलब्धौ पदम् // 151 // पूर्वपरयोरिति कोऽर्थः / प्रकृतिविभक्त्योरित्यर्थः / प्रकृतयः का: / पुरुषादिशब्दा भूप्रभृतयो धातवश्चक प्रकृतयो भवन्ति / विभक्तय: का: / स्यादिस्त्यादिश्च / तयोः प्रकृतिविभक्त्योरोंपलब्धौ सत्यां समुदायस्य पदसंज्ञा भवति / एवं विभक्त्यन्तानां सर्वत्र पदसंज्ञा भवति / सर्वशब्दस्य क्वचिद्विशेषः / सर्व: / सौं। जसि–सर्वनाम्न इति वर्तते। // 152 // अकारान्तात्सर्वनाम्न: परो जस् सर्व इर्भवति / सर्वे हे सर्व / हे सौं / हे सर्वे / सर्वं / सर्वो। सर्वान् / सर्वेण / सर्वाभ्यां / सर्वैः // ङयि / पुरुषे यहाँ नामि से परे स् होने पर ए हो गया तो पुरुषेषु बन गया। अब पुरुष का पूरा रूप चलाइएपुरुषः पुरुषौ पुरुषाः / पुरुषाय पुरुषाभ्याम् पुरुषेभ्यः .. हे पुरुष ! हे पुरुषौ / हे पुरुषाः ! पुरुषात् पुरुषाभ्याम् पुरुषेभ्यः पुरुषम् पुरुषौ पुरुषान् पुरुषस्य पुरुषयोः पुरुषाणाम् पुरुषेण पुरुषाभ्याम् पुरुषैः पुरुषयोः पुरुषेषु इसी प्रकार से धर्म, वीर, वेद, वृक्ष, सूर्य, सागर, स्तंभ, वाण, मृग, राघव, मास, पक्ष, शिव, शैल, गुह्यक, त्रास, गण्डक, कट, पाट, नाग, शंकर, घट और पट आदि शब्दों के रूप चलते हैं। पूर्व और पर के मिलने से अर्थ की उपलब्धि होने पर उसे 'पद' संज्ञा होती है // 151 // पूर्व और पर का क्या अर्थ है ? प्रकृति और विभक्ति को पूर्व और पर कहते हैं। प्रकृति किसे कहते हैं ? वृक्षादि शब्द और भू आदि धातु प्रकृति कहलाते हैं। विभक्ति किसे कहते हैं ? सि आदि विभक्तियाँ और ति, तस् आदि प्रत्यय विभक्ति कहलाते हैं। इन प्रकृति और विभक्ति के मिलने पर जो रूप बनता है उससे अर्थ का बोध होता है। अत: इस समुदाय का नाम 'पद' है जैसे यहाँ 'पुरुष' यह पद है। इस प्रकार से सर्वत्र विभक्ति हैं अन्त में जिनके ऐसे शब्दों को पद संज्ञा होती है / अर्थात् पुरुष शब्द को लिंग संज्ञा थी जब उसमें विभक्तियाँ लग गईं तब उन्हें पद संज्ञा हो गई। ___ सर्वशब्द सर्वनाम संज्ञक है अत: उसमें कुछ विशेषता है। सर्व + सि=सर्वः, सर्व+ औ= सौं। सर्व + जस् है—'जसि सर्वनाम्न:' यह सूत्र अनुवृत्ति में चला आ रहा है। यहाँ सूत्र लंगा ज: सर्व इ: अकारांत सर्वनाम से परे जस् को 'ई' हो जाता है // 152 // सर्व+इ-संधि होकर = सर्वे बना। सम्बोधन में—हे सर्व, हे सर्वो, हे सर्वे / द्वितीया, तृतीया में भी अन्तर नहीं है। सर्व+ डे है। १.जस्-शब्दस्य प्रथमैकवचनम /
SR No.004310
Book TitleKatantra Vyakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1992
Total Pages444
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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