________________ 318 कातन्त्ररूपमाला सूर्यरुच्याव्यथ्याः कर्तरि // 537 // . एते कर्तरि निपात्यन्ते। सरति सूते वा लोकानिति सूर्यः। रोचत इति रुच्यः। व्यथ / दुःखभयचलनयोः / न व्यथते इति अव्यथ्य:। भिद्योध्यौ नदे॥५३८॥ एतौ कर्तरि नदे निपात्येते / भिनत्ति कूलानीति भिद्य: / उज्झत्युदकमित्युध्यः। .. युग्यं च पत्रे // 539 / / युग्यमिति निपात्यते पत्रे वाहनार्थे / युज्यते अनेनेति युग्यं / कृष्टपच्यकृप्यसंज्ञायाम् // 540 // एते निपात्यन्ते संज्ञायां / कृष्टे स्वयमेव पच्यन्ते कृष्टपच्या व्रीहयः / कुप्यं सुवर्णरजताभ्यामन्यत्। / ऋवर्णव्यञ्जनान्ताद् घ्यण्॥५४१॥ ऋवर्णान्तात् व्यञ्जनान्ताद्धातो: घ्यण् भवति / णकार इद्वद्भावार्थ: / घकारश्चजो: कगौ इत्यर्थः / कार्यं / स्तृङ् आच्छादने / निस्तार्यं / श्लोक लोचू दर्शने / आलोक्यं आलोच्यं / वाद्ये / कृप कृपायां / कृपे / रो लः / कल्प्यं / चजोः कगौ धुट्यानुबन्धयोः / / 542 // चजो: कगौ यथासंख्यं भवतः धुटि घानुबन्धे परे / वाक्यं पाक्यं योग्यं भोग्यं / सूर्य रुच्य अव्यथ्य शब्द निपात से सिद्ध होते हैं // 537 // सूर्यः, रुच्य:, अव्यथ्यः। भिद्य, उध्य नद अर्थ में निपात से बनते हैं // 538 // जो तटों को भेदन करे वह भिद्य:, जो उदक को छोड़े-उध्यः / वाहन अर्थ में 'युग्य' निपात से बनता है // 539 // जिसके द्वारा ले जाया जाय—वह, युग्यं / कृष्ट पच्य और कुप्य संज्ञा अर्थ में निपात से सिद्ध होते हैं // 540 // जो जोते हुये क्षेत्र में स्वयं ही पक जाते हैं वे 'कृष्टपच्या:' / धान्य / कुप्यं-सुवर्ण रजत से भिन्न को कुप्य कहते हैं। ___ऋवर्णान्त और व्यञ्जनान्त धातु से घ्यण् प्रत्यय होता है // 541 // ___णकारानुबंध इचवत् भाव के लिये है और घकारानुबंध 'चजो: कगौः' इत्यादि 542 सूत्र के कार्य के लिये है। कृकार्यं “वृद्धिरादौसणे" सूत्र से वृद्धि होकर शब्द बने हैं। स्तृङ्–ढकना = निस्तार्य, लोक लोच–देखना आलोक्यं आलोच्यं वाद्यं / कृप—कृपा अर्थ में = 'कृपे रो ल:' सूत्र से ऋ के र् को ल् होकर कल्प्यं बना। धुट् घानुबंध प्रत्यय के आने पर चको क और ज को ग होता है // 542 // वच्–वाक्यं, पच् = पाक्यं, युज् = योग्यं, युज् = योग्यं, भुज् = भोग्यं / /