________________ तिङन्त: 303 एते सोपसर्गा नित्यं मानुबन्धा भवन्ति // एते अनुपसर्गा वा मानुबन्धा भवन्ति / तत्र सोपसर्गपक्षे मानुबन्धानां ह्रस्व: / ज्वल दीप्तौ प्रज्वलयति / प्राजिज्वलत् / ह्वल हल चलने / प्रह्वलयति / प्राजिह्वलत् / प्रलयति / प्राजिह्मलत् / अमन्तत्वात् // प्रणमयति / प्राणीनमत् / उपनमयति / उपानीनमत् / अनुपसर्गा वा // 459 // एते अनुपसर्गा वा मानुबन्धा भवन्ति। ज्वलयति / ज्वालयति। अजिज्वलत्। ह्वलयति / ह्वालयति / अजिह्वलत् / ह्यलयति अजिह्मलत् / नमयति / / नामयति / अनीनमत् / ग्लास्नावनवमश्च // 460 // एते मानुबन्धा वा भवन्ति / ग्लै हर्षक्षये। ग्लापयति / ग्लपयति / अजिग्लपत् / ष्णा शौचे // स्नपयति / स्नापयति / असिस्नपत् / वन-षण संभक्तौ // वनयति / वानयति / अवीवनत् / टुवमुद्गिरणे। वमयति / वामयति / अवीवमत् / न कमभ्यमि चमः // 461 // एषां ह्रस्वो नं भवति इनि परे। कमेरिनिङ् कारितम् // 462 // कमे: कारितसंज्ञक इनिङ् भवति स्वार्थे / कमु कान्तौ / कामयते / अचिकमत् / अम हम मी मृ हय गतौ // आमयति / आमिमत् / चमु अदने / चामयति / अचीचमत् / . . शमोऽदर्शने // 463 // शमोऽदर्शनेऽर्थे ह्रस्वो भवति इनि परे ! शमयति रोगान् / अशिशमत् / अदर्शन इति किं ? निशामयति रूपं / न्यशीशमत्। यमोऽपरिवेषणे // 464 // ___उपसर्ग पक्ष में मानुबन्ध होने से ह्रस्व होते हैं / ज्वल-दीप्त होना प्रज्वलयति / प्राजिज्वलत् / ह्वल ह्मल-चलन / प्रह्वलयति / प्राजिह्वलत् / प्रह्मलयति / प्राजिह्मलत् / प्रणमयति / प्राणीनमत् / उपनमयति / उपानिनमत्। / ___उपसर्ग रहित विकल्प से मानुबन्ध होते हैं // 459 // ___ ज्वलयति / ज्वालयति / अजिज्वलत् / ह्वलयति, ह्वालयति नमयति, नामयति / अनीनमत् / ग्ला, स्ना वन और वम ये धातु मानुबन्ध विकल्प से होते हैं // 460 // ग्लापयति, ग्लपयति / ष्णा-नहाना / स्नपयति, स्नापयति वन षण-संभक्ति / वनयति, वानयति / वमयति / वामयति / अवीवमत्।। कम अम और चम को इन् के आने पर ह्रस्व नहीं होता है // 461 // - कम से कारित संज्ञक इनिङ होता है स्वार्थ में // 462 // कामयते / ङानुबंध प्रत्यय से आत्मनेपदी हो गया है। अचीकमत् / अम, हम, मी, मू, हय—गमन करना। आमयति. आमिमत् / चमु-खाना / चामयति / अचीचमत् / इन् के आने पर शम् को अदर्शन अर्थ में ह्रस्व होता है // 463 // शमयति / रोगों को शांत करता है। अशिशमत् / नहीं देखना अर्थ हो ऐसा क्यों कहा ? देखने अर्थ में दीर्घ हो गया। निशामयति रूपं / न्यशीशमत्।। अपरिवेषण अर्थ में यम् को ह्रस्व होता है // 464 //