________________ 289 तिङन्तः दरिद्रातेरसार्वधातुके // 391 // दरिद्रातेरन्तस्य लोपो भवत्यसार्वधातुके स्वरे परे // दिदरिद्रिषति / अत्र इटि च आकारलोप: / छवोः शूठौ पञ्चमे च // 392 / / छकारवकारयोर्यथासंख्यं शु ऊठ् इत्येतौ भवत: क्वौ धुट्यगुणे प्रत्यये पञ्चमे परे / दिद्यूषति / ऋधिज्ञपोरीरीतौ // 393 // ऋधिज्ञपोरीरीतौ भवतोऽभ्यासलोपश्च सनि परे / ज्ञीप्सति / ईसति / भृजादीनां षः॥३९४॥ भृजादीनां धातूनामन्त: षो भवति धुट्यन्ते च / इति जकारस्य षकार: / बिभृक्षति / दम्भेस्सनि // 395 // दंभेरनुषङ्गो लोप्यो भवत्यनिटि सनि परे / तृतीयादेर्धढघभान्तस्येत्यादिना धत्वं / दम्भेरिच्च॥३९६ // दम्भे: स्वरस्य इत् ईच्च भवति अभ्यासलोपश्च सनि परे / धिप्सति / धीप्सति / शिश्रीषति / युयूषति / उरोष्ठ्योपधस्य च // 397 // ओष्ठ्योपधस्य ऋदन्तस्य उर् भवति अगुणे प्रत्यये परे / नामिनो वोरकुछुर्व्यञ्जने इत्युपधाया दी| भवति / बुभूपति। इस नियम से ष नहीं हुआ तो सिसासति / दरिद्रा-दुर्गति अर्थ में है। असार्वधातुक स्वर के आने पर दरिद्रा के अन्त का लोप हो जाता है // 391 // दिदरिद्रिषति / यहाँ आकार का लोप और इट् हुआ है। क्वि, धुट् अगुण, प्रत्यय पञ्चम के आने पर छकार वकार को क्रम से शु और ऊठ हो जाता है // 392 // दिधूषति। सन् के आने पर ऋध ज्ञप् को 'ई' 'ईत्' हो जाता है और अभ्यास का लोप हो जाता है // 393 // ज्ञीप्सति / ईर्त्यति। धुट् अन्त में आने पर भृजादि धातु के अंत को 'ष' होता है // 394 // इस प्रकार से जकार को षकार हो गया है बिभक्षति / __ अनिट् सन् के आने पर दम्भ के अनुषंग का लोप हो जाता है // 395 // "तृतीयादेघढधभान्तस्य....” १४४वें सूत्र से धकार हो गया है। सन् के आने पर दंभ के स्वर को इत् ईत् हो जाता है और अभ्यास का लोप हो जाता है // 396 // द् को ध् अनुषंग का लोप अ को इ और ई तथा भू को प् होकर धिप्सति, धीप्सति / शिश्रीषति युयूषति। अगुण प्रत्यय के आने पर ओष्ठ्य की उपधा के ऋदन्त को उर् हो जाता है // 397 // "नामिनोवो ..." इत्यादि सूत्र 183 से उपधा को दीर्घ होकर बुभूपति बना।