SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 296
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तिङन्तः 261 श्लोकः ऋवृज्ञां सनीड् वा स्यादात्मने च सिजाशिषोः / संयोगादेतो वाच्यः सुडसिद्धो बहिर्भव: // 1 // संयोगादेः ऋत:-स्मृ आध्याने इत्यस्य यथा / तर्हि 'सुड् भूषणे संपर्युपात्' इत्यनेन कृञो धातो: सुटि प्रत्यये समागते सति संस्कृ उपस्कृ इत्यत्र संयोगो वर्तते, तत्रापि इट् प्रत्ययो भविष्यति विकल्पेन; नैवं यत: कारणात् सुडसिद्धो बहिर्भवः / सुट् प्रत्यय आगतोऽपि अनागत इव वर्तते / तत्कारणगर्भितं विशेषणमाह-कथंभूत: सुट् ? बहिर्भवो बहिरङ्गः / असिद्धं बहिरङ्गमन्तरङ्गे इति न्यायादित्यर्थः / इति इड्विकल्पेन / पुनरपि, ___ ऋवृड्ञोपि वा दीर्घा न परोक्षाशिषोरिटः। न परस्मै सिचि प्रोक्त इति योगविभञ्जनात् // 2 // इति इटो दी| विकल्पेन / वृङ् सभक्तौ / अवृत अवृषातां अवृषत / अवरिष्ट अवरिषातां अवरिषत / अवरीष्ट अवरीषातां अवरीषत / ग्रहीङ् उपादाने। इटो दीपों ग्रहेरपरोक्षायाम्॥२९०॥ ग्रह: परस्य इटो दीर्घा भवति अपरोक्षायां / अग्रहीत् अग्रहीष्टां अग्रहीषुः / अग्रहीष्ट अग्रहीषातां अग्रहीषत / इति क्यादिः। इस प्रकार से तनादिगण समाप्त हुआ। अद्यतनी में क्रयादिगण प्रारंभ होता है। क्री-अक्रैषीत् अक्रैष्टां / आत्मनेपद में अक्रेष्ट अक्रेषातां / अर्थ-ऋकारांत वृङ् वृञ् धातु को सन् के आने पर, आत्मनेपद में एवं सिच् आशिष के आने पर इट् विकल्प से होता है। ' संयोगादि ऋकारांत से-स्मृ-धातु आध्यान-स्मरण अर्थ में है। ऐसे ही "सुड् भूषणे संपर्युपात्" सूत्र से सं, परि, उप उपसर्ग के योग में कृ धातु से सुट् प्रत्यय के आने पर 'संस्कृ' उपस्कृ इस प्रकार कृ धातु भी संयोगादि ऋदन्त बन गई। वहाँ पर भी विकल्प से इट् होने वाला था। किन्तु नहीं हुआ क्योंकि 'सुडसिद्धो बहिर्भव:' इस श्लोकार्थ के अन्तिम चरण के नियम से सुट् प्रत्यय होने पर भी नहीं हुये के समान है। उस कारण से गर्भित विशेषण को कहते हैं। सुट् कैसा है ? बाहर में होने वाला बहिरंग कहलाता है। 'अन्तरंग के होने पर बहिरंग असिद्ध हो जाता है' इस न्याय से ऐसा अर्थ होता है। इस प्रकार से यहाँ इट् विकल्प से होता है। पुनरपि / श्लोकार्थ-वृङ् वृञ् को ऋकारांत धातु से परोक्षा और आशिष के इट् को विकल्प से दीर्घ हो जाता है। ___ इस नियम से विकल्प से इट् दीर्घ हो जाता है / वृङ् संभक्ति अर्थ में है। जब इट नहीं हुआ तब अवृत अवृषातां अवृषत। इट् होने पर दीर्घ नहीं हुआ। अवरिष्ट / इट् को दीर्घ करने पर अवरीष्ट अवरीषातां अवरीषत / गृहीञ्-ग्रहण करना। ___अपरोक्षा में ग्रह धातु से परे इट् को दीर्घ हो जाता है // 290 // अग्रहीत् अग्रहीष्टां अग्रहीषुः / अग्रहीष्ट / इस प्रकार से अद्यतनी में क्यादि गण समाप्त हुआ।
SR No.004310
Book TitleKatantra Vyakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1992
Total Pages444
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy