________________ तिङन्त: 253 व्यापरिभ्यो रमः // 254 // विआपरिभ्य: परस्य रमुधातोः परं परस्मैपदं भवति // व्यरंसीत् / णमु प्रह्वत्वे शब्दे / अनंसीत् / अव्यासीत् अव्यासिष्टां अव्यासिषुः / अव्यास्त अव्यासात अव्यासत।। सणनिटः शिडन्तानाम्युपधाददृशः // 255 // दृशवर्जितात् नाम्युपधादनिट: शिडन्ताद्धातो: सण भवति अद्यतन्यां परत: / सिचोपवादः / रिश रुश हिंसायां / क्रुश आह्वाने गाने रोदने च / लिश विच्छ गतौ / क्रुश ह्वरणदीप्त्योः / रिशिरुशिक्रुशिलिशिविशिदिशिदृशिस्पृशिमृशिदंशेःशात् // 256 / / एभ्यः परमसार्वधातकमनिड भवति / अरिक्षत अरिक्षतां अरिक्षन / अरिक्ष: अरिक्षतं अरिक्षत / अरिक्षं अरिक्षाव अरिक्षाम / अक्रुक्षत् अक्रुक्षतां अक्रुक्षन् / अक्रुक्ष: अक्रुक्षतं अक्रुक्षत / सणो लोपः स्वरे बहुत्वे // 257 // सणोऽस्य लोपो भवत्यबहुत्वे स्वरे परे / अक्रुक्षम् अक्रुक्षाव अक्रुक्षाम् / विश प्रवेशने / अविक्षत् / त्विष दीप्तौ। त्विषिपुष्यतिकृषिश्लिष्यतिद्विषिपिषिविषिशिषिशुषितुषिदुषेः षात् / / 258 // एभ्य: परमसार्वधातुकमनिड् भवति / अत्विक्षत् अत्विक्षतां अत्विक्षन् / कृष विलेखने / अकृक्षत् अकृक्षतां अकृक्षन् / श्लिष आलिङ्गने / अश्लिक्षत् / द्विष अप्रीतौ / अद्विक्षत् / पिप्लु संचूर्णने / अपिक्षत् / विष्ल व्याप्तौ। अविक्षत्। शिष्ल विशेषणे। तुष तुष्टौ / अतुक्षत्। दुष वैकृत्ये। अदुक्षत् अक्षतां अदुक्षन् / दुह प्रपूरणे।। वि और आङ् उपसर्ग से परे रम धातु परस्मैपद में होती है // 254 // व्यरंसीत्। णमु धातु नमस्कार करने और शब्द करने अर्थ में है। अनंसीत् / अव्यासीत् / अव्यासिष्टां / अव्यास्त, अव्यासातां / दृश वर्जित, नामि उपधा से अनिट् और शिट् अंत वाली धातु को अद्यतनी में 'सण' हो जाता है // 255 // . .. और सिच् का अपवाद हो जाता है / सण् प्रत्यय लाने पर गुण वृद्धि नहीं होता है / रिश रुश-हिंसा करना। क्रुश-आह्वानन करना, गाना, रोना। लिश, विच्छ-गमन करना। क्रुश-हरण और दीप्ति / विश्-प्रवेश करना। दिश-अतिसर्जन करना। रिश् रुश् क्रुश् लिश् विश् दिश् दृश् स्पृश् मृश् और दंश् धातु अनिट् होती हैं // 256 // ___'छशोश्च' सूत्र से श को ष हुआ, 'षढो क: से' सूत्र से ष को क होकर सण के स को ष होकर अरिक्षत् अरिक्षतां अरिक्षन् / अक्रुक्षत् / अबहत्व स्वर के आने पर सण के अकार का लोप हो जाता है // 257 // अक्रुक्षम् / विश-प्रवेश अर्थ में / अविक्षत् / त्विष्-दीप्त होना / पुष्-पुष्ट होना। त्विष् पुश् कृष् श्लिष् द्विष् पिष् विष् शिष् शुष् तुष् और दुष् धातु से परे असार्वधातुक में इट् नहीं होता है // 258 // _अत्विक्षत् / कृष-विलेखन करना / अकृक्षत् / श्लिष्-आलिंगन करना। अश्लिक्षत् / द्विष् अप्रीति अर्थ में है-अद्विक्षत् / पिष्ल-चूर्ण करना। अपिक्षत् / विष्ल-व्याप्त होना। अविक्षत् / शिष्ल-विशेष करना। तुष्-तुष्ट होना अतुक्षत् / दुष्-दुषित होना। अदुक्षत् / दुह्-प्रपूरण अर्थ में।