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________________ तिङन्त: 251 वदवजरलन्तानां च // 248 // वदव्रजरलन्तानामुपधाभूतस्यास्य दीपो भवति परस्मैपदे सिचि परे। इटचेटि॥२४९॥ इट: परस्य सिचो लोपो भवति ईटि परे। अवादीत अवादिष्टां अवादिषः। धज ध्वज वज वज गतौ / प्रावाजीत् प्रावाजिष्टां प्राव्राजिषुः / वर ईप्सायां / अवारीत् अवारिष्टां अवारिषुः / चर गतिभक्षणयोः / अचारीत अचारिष्टां अचारिषः / फल निष्पत्तौ / अफालीत् अफालिष्टां अफालिष: / शल श्वल्ल आशुगतौ। अशालीत् / अशालिष्टां अशालिषुः / अशाली: अशालिष्टं अशालिष्ट / अशालिषं अशालिष्व अशालिष्म। व्यञ्जनादीनां सेटामनेदनुबन्धम्यन्तकणक्षणश्वसवधां वा // 250 // एदनुबन्धम्यन्तकणक्षणश्वसवर्जितानां सेटां व्यञ्जनादीनां धातूनां उपधाभूतस्यास्य दी? भगति वा परस्मैपदे सिचि परे / रद विलेखने। अरादीत् अरादिष्टां अरादिषुः / अरदीत् अरदिष्टां अरदिषुः / गद् व्यक्तायां वाचि / अगादीत् अगादिष्टां अगादिषुः / अगदीत् अगदिष्टां अगदिषुः / व्यञ्जनादीनामिति किं ? मायोगेऽद्यतनी // 251 // माशब्दयोगे धातोरद्यतनी भवति / अट पट इट किट कट गतौ / मा भवानटीत् मा भवन्तावटिष्टां / मा भवन्तोऽटिषुः / मा त्वमटी: मा युवामटिष्टं मा यूयमटिष्ट / माहमटिषं मा वामटिष्व मा वयमटिष्म / सेटामिति किं ? अपाक्षीत् अपाक्तां अपाक्षुः / अपाक्षी: अपाक्तं अपाक्त / अपाक्षं अपाक्ष्व अपाक्ष्म / नित्यमुपधाभूतस्येति किं ? अव रक्ष पालने / अरक्षीत् अरक्षिष्टां अरक्षिषुः / अरक्षी: अरक्षिष्टं अरक्षिष्ट / अरक्षिषं अरक्षिष्व अरक्षिष्म्। तक्षू त्वक्षू तनूकरणे / अतक्षीत् / अत्वक्षीत् / अस्येति किं ? मुष स्तेये। परस्मैपद में सिच के आने पर वद् व्रज रकारान्त और लकारांत धातु की उपधा के अकार को दीर्घ हो जाता है // 248 // इट् के परे ईट् के आने पर सिच् का लोप हो जाता है // 249 // अवादीत् / अवादिष्टां अवादिषुः / धृज ध्वज वज व्रज धातु गति अर्थ में हैं। प्रावाजीत् / वर ईप्सा अर्थ में है। अवारीत् / चर-गति और भक्षण / अचारीत् / फल-निष्पत्ति अर्थ में है। अफालीत् / शल श्वल्ल-शीघ्रगति अर्थ में है। अशालीत् अशालिष्टां अशालिषुः। एत् अनुबंध, हकार मकारांत, कण क्षण श्वस और वध इन धातुओं से रहित इट् सहित व्यंजनादि धातु के उपधाभूत अकार को परस्मैपद में सिच् के आने पर दीर्घ विकल्प से होता है // 250 // __रद-विलेखन अर्थ में / अरादीत् / अरदीत् / गद्-स्पष्ट बोलना। अगादीत्, अगदीत् / व्यंजनादि धातुओं को ऐसा क्यों कहा ? ____ मा शब्द के योग में धातु से अद्यतनी विभक्ति हो जाती है // 251 // ___ अट पट इट किट कट गति अर्थ में हैं, अटीत् माभवानटीत् / इसमें उपधा को दीर्घ नहीं हुआ। इट् सहित हो ऐसा क्यों कहा ? अपाक्षीत् / यह इट् रहित है अत: विकल्प नहीं हुआ। नित्य ही उपधा भूत हो ऐसा क्यों कहा ? अव, रक्ष पालन अर्थ में हैं। अरक्षीत् / तथू त्वक्षू-कृश-करना। अतक्षीत् / अत्वक्षीत् / अकार को हो ऐसा क्यों कहा ? मुष-चुराना। अमोषीत् / कुष्-निष्कर्ष अर्थ में है। अकोषीत्। वर्जन ऐसा क्यों कहा ? खगै-हंसना। अखगीत्। रगे-शंका अर्थ में। अरगीत् /
SR No.004310
Book TitleKatantra Vyakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1992
Total Pages444
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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