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________________ तिङन्तः 239 इरन्यगुणे // 196 // ऋदन्तादिकारागमो भवति अगुणे अन्विकरणे परे / स्वरादाविवर्णोवर्णान्तस्य धातोरियुवौ / म्रियते नियेते म्रियन्ते / मुच्छृ मोक्षणे।। ___ मुचादेरागमो नकारः स्वरादनि विकरणे // 197 // मचादे: स्वरान्नकारागमो भवत्यनि विकरणे परे / मञ्जति मात: मनन्ति / लप्लब छेटने। विटलज लाभे / लिप् उपदेहे / षिचिर् क्षरणे / लुम्पति लुम्पते / विन्दति विन्दते। लिम्पति लिम्पते / सिञ्चति / सिञ्चते / इति मुचादिः / तुदेत् / म्रियेत / मुञ्चेत् / मुञ्चेत / तुदेत् / म्रियतां / मुञ्चन्तु / मुञ्चतां / अतुदत् / अम्रियत / अमुञ्चत् / अमुञ्चत अमुञ्चेतां अमुञ्चन्त / अमुञ्चथा: अमुञ्चेथां अमुञ्चध्वं / अमुञ्चे अमुञ्चावहि अमुञ्चामहि / भावकर्मणो:-तुद्यते। . यणाशिषोर्ये // 198 // ऋदन्तादिकारागमो भवति यणाशिषोर्ये परे / म्रियते / मुच्यते / लुप्यते / विद्यते / लिप्यते / सिच्यते इत्यादि / कृ विक्षेपे / गृ निगरणे। . ऋदन्तस्येरगुणे // 199 // ऋदन्तस्य इर् भवत्यगुणे परे / किरति / गिरति / अगुण विभक्ति में अन् विकरण के आने पर ऋकारांत धातु से 'इकार्' का आगम हो जाता है // 196 // : 'रमृवर्णः' सूत्र से ऋ को र होकर ‘म्रि ते' रहा 'स्वरादाविवर्णोवर्णान्तस्य धातोरियुवौ' 83 सूत्र से इकार को 'इय्' होकर म्रियते बना, म्रियेते म्रियते। इस गण में ‘आत्मने चानकारात्' सूत्र से अन्ते के नकार का लोप नहीं होता है। मुच्लू धातु मुक्त–छूटने अर्थ में है। मुच् अ ति है। _____ अन् विकरण के आने पर मुचादि में स्वर से परे ‘नकार' का आगम हो जाता है // 197 // __'मुन् च् अति' है 'वर्गे तद्वर्गपञ्चमं वा' 93 सूत्र से चवर्ग का अंतिम अक्षर होकर 'मुञ्चति' बना / 'मुञ्च अअन्ति में असंध्यक्षरयोरस्य तौ तल्लोपश्च' २६वें सूत्र से अकार का लोप हो गया है / 'मुञ्चन्ति' बना। लुप्लुज् धातु छेदन अर्थ में है। लुञ् का अनुबंध होकर लुप् रहा। विद्लुञ्–लाभ अर्थ में है 'विद्' रहता है। लिप् वृद्धि अर्थ में है। षिचिर्-क्षरण अर्थ में है 'षिच्' रहता है। - इन सबमें नकार का आगम होकर-लुम्पति / लुम्पते / विन्दति, विन्दते / लिम्पति, लिम्पते / सिञ्चति, सिञ्चते / ये 'मुचादि' धातु कहलाती हैं। तुदेत् / म्रियेत / मुञ्चेत्, मुञ्चेत / तुदतु / म्रियतां / मुञ्चतु मुञ्चतां / अतुदत् / अम्रियत / अमुञ्चत् / अमुञ्चत / भावकर्म में तुयते / मृ य ते है। __यण आशी और 'य' प्रत्यय के आने पर ऋकारांत से इकार का आगम हो जाता है // 198 // म्रियते / मुच्यते / लुप्यते / विद्यते / लिप्यते / सिच्यते / कृ धातु विक्षेपण करने अर्थ में है। गृ निगलने अर्थ में है। अगुण विभक्ति के आने पर ऋकारांत को 'इर्' हो जाता है // 199 // किरति / गिरति /
SR No.004310
Book TitleKatantra Vyakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1992
Total Pages444
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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