________________ 236 कातन्त्ररूपमाला सूयते सूयेते सूयन्ते / सूयेत सूयेयातां सूयेरन् / सूयतां सूयेतां सूयन्तां / असूयत असूयेतां असूयन्त। . अस्यथा: असयेथां असयध्वं / अस्ये असयावहि असयामहि / णहज् बन्धने। संनह्यति संनह्यत: संनह्यन्ति / संनह्यते संनह्येते संनयन्ते / संनह्येत् संनह्येतां संनह्येयुः / संनोः संनह्येतं संनह्येत / संनह्येयं संनह्येव संनोम / संनह्येत संनह्येयातां संनोरन् / संनह्यतु संनयतात् संनह्यतां संनह्यन्तु / संना संनयतात् संनातं संनह्यत / संनह्यानि संनह्याव संनह्याम। संनह्यतां संनह्येतां संनयन्तां / संनह्यस्व संनोथां संनह्यध्वं / संन] संनह्यावहै संनह्यामहै। समनहत् समनह्यतां समनन्। समनह्यत समनह्येतां समनह्यन्त / इत्यादि / भावकर्मणोश्च / दीव्यते / सूयते। संनहते। जिमिदा स्नेहने। मिदेः॥१८४॥ मिदेरित्येतस्य नाम्युपधस्य धातोर्यन्स्वविकरणे परे गुणो भवति / प्रमेद्यति प्रमेद्यत: प्रमेद्यन्ति / प्रमेयेत् / प्रमेद्यतु / प्रामेद्यत् / शो तनूकरणे / छो छेदने / षो अन्तकर्मणि। दो अवखण्डने। - यन्योकारस्य // 185 // धातोरोकारस्य लोपो भवति यनि परे / श्यति श्यत: श्यन्ति / श्यसि श्यथ: श्यथ / श्यामि श्याव: श्याम: / छ्यति छ्यत: छ्यन्ति / स्यति स्यत: स्यन्ति / द्यति द्यत: द्यन्ति / शम् दम् उपशमे / तमु काक्षायां। . . श्रम् तपसि खेदे च / भ्रम अनवस्थाने / क्षमूष् सहने / क्लमु ग्लानौ / मदी हर्षे / शमादीनां दी? यनि // 186 // शमादीनां दीघों भवति यनि परे। शाम्यति / दाम्यति / ताम्यति / श्राम्यति / भ्राम्यति क्षाम्यति / क्लाम्यति / माद्यति / जनी प्रादुर्भावे। ' जा जनेर्विकरणे // 187 // जने: स्वविकरणे परे जा भवति / जायते / जायेत / जायतां / अजायत। " है / ङ् की इत्संज्ञा होने से आत्मनेपद हुआ। 'धात्वादेः ष: स:' सूत्र से 'सू' रहा। सूयते / सूयेते / सूयेत / सूयतां / असूयत / णहब् धातु-बंधन अर्थ में है। ___ 'णो न:' से न होकर नह्यति संनयति बना। संनह्यते / संनोत् / संनो / संनह्यतु / संनह्यतां / समनह्यत् / समनह्यत / इत्यादि / भावकर्म में—दीव्यते, सूयते / संनह्यते / जिमिदा धातु स्नेह अर्थ में है। 'मिद्' इस नामि उपधा वाली धातु को ‘यन्' विकरण के आने पर गुण हो जाता है // 184 // मेद्यति, प्रमेद्यति / प्रमेयेत् / प्रमेद्यतु / प्रामेद्यत् / शो-कृश करना। छो-छेदन करना / षो-समाप्त होना। दो-टुकड़े करना। शो यन् ति है। _ 'यन्' के आने पर धातु के ओकार का लोप हो जाता है // 185 // श्यति, श्यत: श्यन्ति / छ्यति / स्यति / द्यति / शम् दम् धातु उपशम अर्थ में हैं / तमु कांक्षा अर्थ में, श्रम, धातु तपश्चर्या और खेद अर्थ में हैं। भ्रमु-भ्रमण करने / क्षमूष-सहन करने / क्लम-ग्लानि अर्थ में, मदी धातु-हर्ष अर्थ में है। यन के आने पर शम् आदि को दीर्घ हो जाता है // 186 // शाम्यति, दाम्यति, ताम्यति, भ्राम्यति, क्षाम्यति, क्लाम्यति, माद्यति / जनी उत्पन्न होना। ___ जन् धातु को अपने विकरण के आने पर 'जा' हो जाता है // 187 // जायते / जायेत / जायतां / अजायत /