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________________ तिङन्त: 225 उतो वृद्धिर्व्यञ्जनादौ गुणिनि सार्वधातुके // 132 // धातोरुतो वृद्धिर्भवति व्यञ्जनादौ गुणिनि सार्वधातुके परे / वृद्धिग्रहणाधिक्यादभ्यस्तस्य वृद्धिर्न भवतीत्यर्थः // नौति नुत: नुवन्ति / नौषि नुथ: नुथ / नौमि नुव: नुमः / नुयात् नुयातां नुयुः / नौतु नुतात् नुतां नुवन्तु / अनौत् अनुतां अनुवन् / नूयते / एवं षुञ् स्तुतौ / स्तौति स्तवीति स्तुत: स्तुवन्ति / स्तुते स्तुवाते स्तुवते / स्तूयते / ऊर्गुज आच्छादने। ऊर्णोतेर्गुणः // 133 // ऊोतेर्गुणो भवति व्यञ्जनादौ गुणिनि सार्वधातुके परे / प्रोणोति / वृद्धिग्रहणाधिक्यात् अभ्यस्तस्य पृथक्करणाद्वा प्रोौति प्रोणुत: पोर्तुवन्ति / प्रोणोषि प्रोौषि प्रोणुथ: प्रोर्मुथ / प्रोणमि प्रोणोमि प्रोणुव: प्रोणुमः / प्रोणुते प्रोणुवाते प्रोणुवते। प्रोणुयात् प्रोणुयातां प्रोणुयुः / प्रोणुवीत / प्रोणोतु प्रोर्णोतु प्रोणुतां प्रोणुवन्तु / प्रोणुतां प्रोणुवातां प्रोणुवतां। स्तन्यां च // 134 // ऊर्गुब् इत्येतस्य हस्तन्यां गुणो भवति व्यञ्जनादौ वचने परे / प्रौर्णोत् प्रौर्युतां प्रौणुवन् / प्रोणुत प्रौर्णवातां प्रौर्युवत / प्रोर्णयत इत्यादि / विद् ज्ञाने / वेत्ति वित्त: विदन्ति / विद्यात् विद्यातां विद्युः / वेत्तु वित्तात् वित्तां विदन्तु। विद आम् कृञ् पञ्चम्यां वा॥१३५ // ____ व्यंजनादि गुणी सार्वधातुक विभक्ति के आने पर धातु के उकार को वृद्धि हो जाती है // 132 // 'सूत्र में वृद्धि शब्द को ग्रहण किया है इसका अर्थ है कि अभ्यस्त को वृद्धि नहीं होती है।' नौति, नुतः, नु अन्ति सूत्र 83 से 'उ को उव् होकर नुवन्ति बना।' सप्तमी में-नुयात् / पंचमी में-नौतु, नुतात् / ह्य० में अनौत् / भावकर्म में नूयते / ऐसे ही 'स्तुज्' धातु स्तुति अर्थ में है। वृद्धि होकर 'स्तौति' बना। एक बार 'ब्रुव ईड् वचनादिः' ८१वें सूत्र से 'ईट्' एवं गुण होकर 'स्तवीति' बना 'स्तुत:' स्तुवन्ति / आत्मनेपद में-स्तुते स्तुवाते स्तुवते है / भावकर्म में-स्तूयते। ऊर्गुञ् धातु आच्छादन करने अर्थ में है। ऊर्गु ति है। ऊर्ण धातु को व्यंजनादि गुणी सार्वधातुक में गुण हो जाता है // 133 // यहाँ सूत्र पृथक् बनाने से 'वा' का ग्रहण हो जाता है अत: ऊपर सूत्र में वृद्धि' ग्रहण की अधिकता से या अभ्यस्त को पृथक् करने से विकल्प से वृद्धि भी हो जाती है। प्र उपसर्गपूर्वक प्रोणोति, वृद्धि पक्ष में प्रोणोंति, प्रोणुत: प्रोणुवन्ति / आत्मनेपद में—प्रोणुते, प्रोणुवाते / प्रोणुयात् / प्रोणुवीत / प्रोर्णोतु / प्रोौतु / प्रोणुतां। ___ ह्यस्तनी में व्यंजनादि गुणी विभक्ति के आने पर ऊर्गु को नित्य ही गुण हो जाता है // 134 // ___ प्रौणोंत् / ऊ को ह्यस्तनी में 'स्वरादीनां वृद्धिरादेः' सूत्र 48 से वृद्धि होकर ओौत् बना पुन: 'प्र' उपसर्ग से 'प्रौ#त्' बना। प्रौर्युत्, प्रौर्जुवातां प्रौटुंवत् / भावकर्म में—प्रोणूयते / विद् धातु ज्ञान अर्थ में है। गुण होकर द् को प्रथम होकर वेत्ति, वित्तः, विदन्ति विद्यात् / वेत्तु, वित्तात्। . पंचमी में विद् से परे विकल्प से आम् होकर 'कृ' धातु का प्रयोग होता है // 135 //
SR No.004310
Book TitleKatantra Vyakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1992
Total Pages444
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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