________________ तिङन्त: 217 अब्रवीत् अब्रूतां अब्रुवन् / अबवी: अब्रूतं अबूत। अब्रुवं अब्रूव अब्रूम / अब्रूत अबुवातां अब्रुवत / अबूथा अबुवाथां अबूध्वं / अब्रुव अब्रूवहि अब्रूमहि / भावकर्मणोः। अद्यते अद्येते अद्यन्ते / __ अयीयें // 13 // शेते: ईकारोऽय् भवति ये परे / शय्यते शय्यते / विष्वप् शये। धात्वादेः षः सः / ब्रुवो वचिः॥९४॥ बुवो वचिर्भवति अगुणे सार्वधातुके परे। स्वपिवचियजादीनां यण्परोक्षाशी:षु // 15 // स्वपिवचियजादीनामन्तस्थायाः सम्प्रसारणं भवति यणूपरोक्षाशी:षु परत: / किं सम्प्रसारणं ? सम्प्रसारणं खतोन्तस्थानिमित्ताः // 16 // अन्तस्थानिमित्ता इउऋतः सम्प्रसारणसंज्ञा भवन्ति। सुप्यते सुप्येते सुप्यन्ते। यज देवपूजा-संगतिकरणदानेषु / इज्यते इज्यते इज्यन्ते / असु भुवि / अस्ति / उच्यते उच्यते उच्यन्ते / आत्त / आदं आव आद। अंशेत अशयातां अशेरत / अशेथा: अशयाथां, अशेध्वं / अशयि अशेवहि अशेमहि। बू धातु से दि और सि में सूत्र 81 से ईट् का आगम और गुण होकर अब्रवीत्, अब्रवी: बना। स्वर वाली विभक्ति में ऊ को उव हुआ है। अबवीत् अबूतां अब्रुवन्। अबवी: अबूतं अबूत। अब्रूवम् अब्रूव अब्रूम। अबूत अब्रुवातां अब्रुवत / अबुथा: अब्रुवाथां अबूध्वं / अबुवे अब्रूवहि अब्रूमहि / भाव कर्म में-अद्यते अद्येते अद्यन्ते / 'शीयते' है _ 'य' प्रत्यय के आने पर शीङ् के ईकार को 'अय् होता है // 93 // शय्यते / शय्येत / शय्यतां / अशय्यत / बन गये। जिष्वप् धातु सोने अर्थ में है। “धात्वादेः षः सः” सूत्र 54 से सकार होकर 'स्वप्' धातु है। 'बू धातु से कर्म में ब्रू य ते। अगुण सार्वधातुक के आने पर ब्रू को वच् आदेश होता है // 94 // यण परीक्षा और आशी के आने पर स्वपि, वचि और यजादि के अंतस्थ को संप्रसारण हो जाता है // 15 // संप्रसारण किसे कहते हैं ? . अंतस्थ निमित्त, इ उ ऋ को संप्रसारण संज्ञा है // 16 // अर्थात् य को इ व् को उ और र् को ऋ होना इसे संप्रसारण कहते हैं / संधि में इ को य उ को वक को र होता है, किंतु यहाँ व्यञ्जन को स्वर आदेश होता है। ____ अत: भाव में स्वप् य ते है = सुप्यते बन गया। यज् धातु देव पूजा, संगति करने, दान देने अर्थ में है। भावकर्म में यज् य ते= इज्यते बना। ब्रू य ते को उच्यते बना। असु धातु होने अर्थ में है। अस् अति विकरण का लोप होकर अस्ति बना। अस् तस् है।