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________________ तिङन्त: 205 अकारात्परस्य सप्तमीयाशब्दस्य इर्भवति / भवेत् भवेतां / _ यामयुसोरियमियुसौ॥ 41 // अकारात्परयोर्याम्युसोरियमियुसौ भवतः। भवेयुः। भवे: भवेतं भवेत। भवेयं भवेव भवेम / / भावे-भूयेत / कर्मणि / अनुभूयेत अनुभूयेयातां अनुभूयेरन् / एधेत ऐधेयातां एधेरन् / एधेथा: एधेयाथां एर्ध्वं / एधेय एधेवहि एधेमहि / भावे-एध्येत / पचेत् पचेतां पचेयुः। पचे: पचेतं पचेत / पचेयं पचेव पचेम / पचेत पचेयातां पचेरन् / भावे-पच्येत / कर्मणि-पच्येत / पच्येयातां पच्येरन्। पञ्चम्यनुमतौ॥ 42 // अनुज्ञानमनुमतिः / तदुपाधिकेर्थे पञ्चमी भवति। समर्थनाशिषोश्च // 43 // क्रियासु प्रोत्साह: समर्थना / इष्टस्यार्थस्य आशंसनं आशी: / समर्थनाशिषोरर्थयोश्च पञ्चमी भवति / भवतु / आशिषि / आशिषि / तुह्योस्तातण् वा वक्तव्यः / भवतात् भवतां भवन्तु / हेरकारादहन्तेः॥४४॥ भव+ इत् संधि होकर = भवेत् बना / सर्वत्र 'या' को 'इ' करके संधि करते जाइये / भवेतां भव युस्। अकार से परे ‘यामि, युस्’ को ‘इयम्, इयुस्' हो जाता है // 41 // भव+ इयुस् = भवेयुः / भव+ इयम् = भवेयम् बना। भाव में-भूयेत / कर्म में-अनुभूयेत, अनुभूयेयातां / एध् का कर्तरि प्रयोग में-एधेत, भाव में-एध्येत। पच का कर्ता में-पचेत् / आत्मनेपद में-पचेत। भाव में—पच्येत / कर्म में-पच्येत, पच्येयातां / प्रयोग में-भवेत् भवेतां भवेयुः / भवे: भवेतं भवेत / भवेयम् भवेव भवेम। एधेत एधेयातां एधेरन् / एधेथा: एधेयाथां एर्ध्वं / एधेय एधेवहि एधेमहि / भाव में-एध्येत। परस्मै—पचेत् पचेतां पचेयुः। पचे: पचेतं पचेत / पचेयम् पचेव पचेम। आ०-पचेत पचेयातां परे था: पचेयाथां पचेध्वं / पच्येय पचेवहि पचेमहि / भावे-पच्येत। कर्म में—पच्येत पच्येयातां पच्येरन् / पच्येथाः, पच्येयाथां, पच्येध्वं / पच्येय पच्येवहि पच्येमहि। . अनुमति अर्थ में 'पञ्चमी' होती है // 42 // अनुज्ञान को अनुमति कहते हैं। उस उपाधिक अर्थ में ‘पञ्चमी' विभक्ति होती है। समर्थन और आशिष में भी पञ्चमी होती है // 43 // क्रियाओं में प्रोत्साह करना समर्थन है। इष्ट अर्थ को कहना आशीष है। समर्थन और आशिष के अर्थ में पञ्चमी होती है। भू धातु से 'तु' विभक्ति है अन् विकरण और गुण होकर 'भवतु' बना। "आशिषि तुह्योस्तातण् वा वक्तव्यः” इस वृत्ति से आशिष अर्थ में 'तु' और 'हि' विभक्ति को विकल्प से 'तातण' हो जाता है। अण् का अनुबंध होकर 'भवतात्' बना। भवतां, भवन्तु ‘भव हि' है। हन् धातु को छोड़कर अकार से परे 'हि' का लोप हो जाता है // 44 //
SR No.004310
Book TitleKatantra Vyakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1992
Total Pages444
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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