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________________ तिङन्त: 199 शेषाद्वक्ष्यमाणकारणरहिताद्धातो: कर्तरि परस्मैपदं भवति / तत्रापि नाम्नि प्रयुज्यमानेऽपि प्रथमः // 21 // नाम्नि प्रयुज्यमानेऽप्यप्रयुज्यमानेऽपि प्रथमपुरुषो भवति / तत्राप्येकत्वविवक्षायां प्रथमैकवचनं ति। अन् विकरणः कर्तरि // 22 // धातोर्विकरणसंज्ञकोऽन् भवति कर्तरि विहिते सार्वधातुके परे। अनि च विकरणे // 23 // नाम्यन्तस्य लघुनाम्युपधायाश्च गुणो भवत्यन्विकरणे परे / को गुण: ? ___ अर् पूर्वे द्वे च सन्ध्यक्षरे गुणः // 24 // ऍणां (ऋवर्णइवर्णउवर्णानां) अर् पूर्वे द्वे च सन्ध्यक्षरे गुणो भवति / इत्युवर्णस्य ओकारो गुणः / सन्धि: / स भवति / तथैव द्वित्वविवक्षायां प्रथमपुरुषद्विवचनं तस् / भू तस् इति स्थिते रसकारयोर्विसृष्टः // 25 // शेष—वक्ष्यमाण कारणों से रहित धातु से कर्ता अर्थ में परस्मैपद होता है। उसमें भी एक साथ नव वचनों के आने पर नाम के प्रयोग करने पर भी प्रथम पुरुष होता है // 21 // नाम के प्रयोग करने और नहीं करने पर भी प्रथम पुरुष होता है। उसमें एकवचन की विवक्षा होने पर प्रथम पुरुष का एकवचन 'ति' है / अत: भू+ति है। - कर्ता में 'अन्' विकरण होता है // 22 // कर्ता में कहे गये सार्वधातुक विभक्ति के आने पर धातु से विकरण संज्ञक 'अन्' होता है। अन् विकरण के आने पर गुण होता है // 23 // जिसके अन्त में नामि (इ उ ऋ) हो तथा उपधा में नामि (इ उ ऋ) हो ऐसी धातु को अन् विकरण के आने पर गुण हो जाता है। .. गुण किसे कहते हैं ? ... अर् और पूर्व के दो संध्यक्षर गुणसंज्ञक हैं // 24 // ऋवर्ण को 'अर्' इवर्ण को 'ए' उवर्ण को 'ओ' होना गुण कहलाता है / ऋवर्ण, इवर्ण, उवर्ण इनकी संधि करने पर + इ 'रमृवर्ण: सूत्र ऋ को र् होकर रि बना / पुन: रि + उ है, 'इवर्णो यमसवणे न च परो लोप्य: सूत्र से र् म् उ बना 'व्यंजनमस्वरं परवर्णं नयेत' सूत्र से 'यु' बन गया इसका रूप भानु के समान चलाने से 'यूंणां' पद वृत्ति में है जिसका अर्थ है, ऋवर्ण, इवर्ण और उवर्ण को क्रम से अर् और पूर्व के दो संध्यक्षर-ए, ओ, गुण होता है। इस नियम से यहाँ भू को ओ गुण होकर 'ओ अ ति है' ओ अव् सूत्र से संधि होकर 'भवति' बन गया। इसके साथ प्रथम पुरुष के 'स:' शब्द का प्रयोग करने से वाक्य स्पष्ट हो जाता है। स भवति–वह होता है। उसी प्रकार से द्विवचन की विवक्षा में प्रथम पुरुष का द्विवचन 'तस्' विभक्ति है भू तस् इति स्थित है। . 'अन् विकरण: कर्तरि' से अन् विकरण करके 'अनिच विकरणे' सूत्र से गुण होकर ‘भवतस्' बना। रकार सकार को विसृष्ट (विसर्ग) हो जाता है // 25 //
SR No.004310
Book TitleKatantra Vyakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1992
Total Pages444
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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