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________________ कुछ ही देर बाद भगवान् ऋषभदेव का हस्तिनापुर नगरी में मंगल पदार्पण हुआ। भगवान् का दर्शन करते ही राजा श्रेयांस को जाति स्मरण हो गया। उन्हें आठ भव पूर्व का स्मरण हो आया। जब भगवान् ऋषभदेव राजा वज्रजंघ की अवस्था में व स्वयं राजा श्रेयांस वज्रजंघ की पत्नी रानी श्रीमती की अवस्था में थे और उन्होंने चारण ऋद्धिधारी मुनियों को नवधा भक्तिपूर्वक आहारदान दिया था। तभी राजा श्रेयांस समझ गये कि भगवान् आहार के लिये निकले हैं। यह ज्ञान होते ही वे अपने राजमहल के दरवाजे पर खड़े होकर मंगल वस्तुओं को हाथ में लेकर भगवान् का पड़गाहन करने लगे। हे स्वामी ! नमोस्तु नमोस्तु नमोस्तु अत्र तिष्ठ तिष्ठ . . . . . . विधि मिलते ही भगवान् राजा श्रेयांस के आगे खड़े हो गये। राजा श्रेयांस ने पुन: निवेदन किया-मन शुद्धि, वचन शुद्धि, काय शुद्धि आहार जल शुद्ध है भोजनशाला में प्रवेश कीजिये। चौके में ले जाकर पाद प्रक्षाल करके पूजन की एवं इक्षरस का आहार दिया। आहार होते ही देवों ने पंचाश्चर्य की वृष्टि की। चार प्रकार के दानों में से केवल आहार दान के अवसर पर ही पंचाश्चर्य की वृष्टि होती है। भगवान् जैसे पात्र का लाभ मिलने पर राजा श्रेयांस की भोजनशाला में उस दिन भोजन अक्षय हो गया। शहर के सारे नर-नारी भोजन कर गये तब भी भोजन जितना था उतना ही बना रहा। एक वर्ष के उपवास के बाद हस्तिनापुर में जब भगवान् का प्रथम आहार हुआ तो समस्त पृथ्वी मण्डल पर हस्तिनापुर के नाम की धूम मच गई सर्वत्र राजा श्रेयांस की प्रशंसा होने लगी। अयोध्या से भरत चक्रवर्ती ने आकर राजा श्रेयांस का भव्य समारोहपूर्वक सम्मान किया तथा उन्हें दानतीर्थंकर की पदवी से अलंकृत किया। प्रथम आहार की स्मृति में उन्होंने यहाँ एक विशाल स्तप का निर्माण भी कराया। दान के कारण ही भगवान् आदिनाथ के साथ राजा श्रेयांस को भी याद करते हैं। जिस दिन यहाँ प्रथम आहार दान हुआ वह दिन बैशाख सुदी तीज का था। तबसे आज तक वह दिन प्रतिवर्ष पर्व के रूप में मनाया जाता है। अब उसे आखा तीज या अक्षय तृतीया कहते हैं। इस प्रकार दान की परम्परा हस्तिनापुर से प्रारम्भ हुई। दान के कारण ही धर्म की परंपरा भी तबसे अब तक बराबर चली आ रही है। क्योंकि मन्दिरों का निर्माण, मूर्तियों का निर्माण, शास्त्रों का प्रकाशन, मुनि संघों का विहार दान से ही सम्भव है। और यह दान श्रावकों के द्वारा ही होता है। श्रवणबेलगोल में एक हजार साल से खड़ा भगवान् बाहुबली की विशाल प्रतिमा भी चामुण्डराय के दान का ही प्रतिपल है जो कि असंख्य भव्य जीवों को दिगम्बरत्व का, आत्मशांति का पावन सन्देश बिना बोले ही दे रही है। यहाँ बनी यह जम्बूद्वीप की रचना भी सम्पूर्ण भारतवर्ष के लाखों नर-नारियों के द्वारा उदार भावों से प्रदत्त दान के कारण ही मात्र दस वर्ष में बनकर तैयार हो गई जो कि सम्पूर्ण संसार के लिए आकर्षण का केन्द्र बन गई है। जम्बूद्वीप की रचना सारी दुनिया में अभी केवल यहाँ हस्तिनापुर में ही देखने को मिल सकती है। नंदीश्वरद्वीप की रचना, समवशरण की रचना तो अनेक स्थलों पर बनी है और बन रही है। यह हमारा व आप सबका परम सौभाग्य है कि हमारे जीवन काल में ऐसी भव्य रचना बनकर. तैयार हो गई और उसके दर्शनों का लाभ सभी को प्राप्त हो रहा है। __भगवान् आदिनाथ के प्रथम आहार के उपलक्ष्य में यह तिथि पर्व के रूप में मनाई जाने लगी। वह दिन इतना महान् हो गया कि कोई भी शुभ कार्य उस दिन बिना किसी ज्योतिषी से पूछे कर लिया (20)
SR No.004310
Book TitleKatantra Vyakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1992
Total Pages444
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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