________________ 170 कातन्त्ररूपमाला भृग्वादिभ्यो बहुत्वे विहितस्यास्त्र्यभिधेयस्य अपत्यप्रत्ययस्य लुग्भवति। भृगवः / अत्रयः / आगरस. / गोतमा इत्यादि / अस्त्रियामिति कि ? भार्गव्यः / णटकारानुबन्धादिति नदादित्वादीप्रत्ययः / गर्गस्यापत्यं इति स्थिते . ण्यो गर्गादेः॥४८३॥ गर्गादेर्गणाद् ण्यो भवति अपत्येऽभिधेये। इवर्णावर्णयोर्लोपः स्वरे प्रत्यये ये च // 479 // इवर्णावर्णयोलोपो भवति तद्धिते स्वरे ये च परे / गार्य: / गाग्र्यो / वत्सस्यापत्यं वात्स्य: / वात्स्यौ। कौत्स्य: / कौत्स्यौ / बहुत्वे _ गर्गयस्कविदादीनां च // 484 // गर्गादीनां यस्कादीनां विवादीनां च बहुत्वे विहितस्य अस्त्र्यभिधेयस्य अपत्यप्रत्ययस्य लुग्भवति / गर्गाः / वत्सा: / कुत्सा: / उभयत्र ण्यो लुक् / ऊर्वा: / यस्का: / विदा: / अणो लुक् / इत्यादि / . कुर्वादेर्यण् // 485 // ___अत: भृगोरपत्यानि भृगव: बना अपत्य का लोप होकर उसके निमित्त से होने वाली वृद्धि का भी लोप हो गया। ___अत्रेरपत्यानि अत्रयः, अंगिरसस्यापत्यानि अंगिरस: गोतमस्यापत्यानि गोतमा: इत्यादि। सूत्र में 'अस्त्रियां' ऐसा क्यों कहा ? भृगोरपत्यानि स्त्रीलिंगे वाचके भार्गव्य: बन गया। ण् अनुबंध और टकार का अनुबंध होने से नदादि गण में कहे जाने से स्त्रीलिंगवाची 'ई' प्रत्यय हो गया है। गर्गस्यापत्यं ऐसा विग्रह है। ___ गर्गादि गण से अपत्य अर्थ में ‘ण्य' प्रत्यय होता है // 483 // गर्ग+ ङस् विभक्ति का लोप होकर ण्य प्रत्यय में णकार का अनुबंध होकर णानुबंध से पूर्व स्वर को वृद्धि हुई 'गार्ग य' रहा। स्वर प्रत्यय और यकार प्रत्यय के आने पर इ वर्ण अ वर्ण का लोप हो जाता है // 479 // यहाँ पूर्व के अकार का लोप होकर गार्य बना। लिग संज्ञा होकर विभक्ति आकर 'गार्ग्य:' द्विवचन में 'गाग्र्यो' बना / वत्सस्यापत्यं वात्स्य: वात्स्यौ, कुत्सस्यापत्यं कौत्स्य: कौत्स्यौ / बहुवचन में गर्गादि, यस्कादि और विवादि बहुवचन में किये गये स्त्रीलिंग रहित अपत्य प्रत्यय का 'लुक' हो जाता है // 484 // अपत्य प्रत्यय का लोप होकर गर्गाः, वत्सा:, कुत्सा: बना इन दोनो मे ‘ण्य' का लोप हुआ है। उर्वाः, यस्का: विदा: यहाँ अण् प्रत्यय का लोप हुआ है। कुरु आदि से यण् प्रत्यय हो जाता है // 485 // कुरु आदि गण से अपत्य अर्थ में यण् प्रत्यय होता है। कुरो: अपत्यं कौरव्य: / लहस्यापत्यं लाह्यः / / 1. यह सूत्र पहले आ चुका है।