________________ 162 कातन्त्ररूपमाला अकारान्तादन्यस्माद्व्ययीभावात्परासां विभक्तीना लग भवति। अधिस्त्रि। यथाशक्ति। एवमधिगायत्रि। अधिसरस्वति / अधिभारति / अधिनदि। आत्मनः अधि अध्यात्म। गुरोरनतिक्रमण यथागुरु / वध्वा अनतिक्रमेण यथावधु / चम्वा अनतिक्रमेण यथाचमु / गिरेरनतिक्रमेण यथागिरि / वध्वा अनुगम: अनुवधु / अनुकण्डु / अनुनदि / अनुस्त्रि / अनुपटु / अनुवायु / अनुगुरु / अनुपितृ अनमातृ अनुकर्तृ / कर्तुः समीपमुपकर्तृ / एवमुपगिरि / उपरवि। उपयति / उपगुरु उपतरु / उपवधु / उपचमु उपनदि / उपस्त्रि / उपगु / उपनु / कर्तुरतिक्रम: अतिकर्तृ / एवमतिरि / अतिगु। अतिनु। समं भूमिपदात्योः // 452 // भूमिपदात्योः परयो: समत्वं इत्येतस्य सममित्यादेशो भवति / भूमेः समत्वं समभूमि / पदातीनां समत्वं समंपदाति। सुविनिर्दुर्ध्यः स्वपिसूतिसमानाम् // 453 // सुविनिर्दुर्घ्य: परस्य स्वपिसूतिसमानां सकारस्य षकारो भवति / सुषमं / विषमं / निष्पमं / दुष्पमं / अपरसमं इत्यादि। द्वन्द्वैकत्वम् / / 454 // समाहारद्वन्द्वस्यैकत्वं नपुंसकलिङ्ग च स्यात् / अर्कश्च अश्वमेधश्च अर्काश्वमेधौ। तयोः समाहार: अर्काश्वमेधं / एवं तक्षायस्कार / हसमयूर / मथुरापाटलिपुत्रं / पाणिपादं / बदरामलकं / सुखदुःखं / शुकश्च हंसश्च मयूरश्च कोकिलश्च शुकहसमयूरकोकिलं / इत्यादि। तथा द्विगोः / / 455 // तथा समाहारद्विगोरप्येकत्वं नपुंसकलिङ्गं च स्यात् / अत: अधिस्त्रि यथाशक्ति अधिगायत्रि, अधिसरस्वति आदि बन गये। ऐसे ही आत्मनः अधि–अध्यात्म। आत्मन् शब्द को अकारांत होकर नपुंसकलिंग में एकवचन हो गया। गुरो अनतिक्रमेण–यथा गुरु / वध्वा अनुगम: अनुवधु / कर्तुः समीपं-उपकतुं गो: समीपं–उपगु। ह्रस्व हो गया। इसी प्रकार से ऊपर में बहुत से शब्द बने हैं देख लेना चाहिये। भूमेः समत्वं, पदातीनां समत्वं है। भूमि पदाति से परे समत्वं को समं आदेश हो जाता है // 452 // समभूमि, समं पदाति। सु, वि, निर्, दुर् से परे स्वपि, सूति और समान के सकार को षकार हो जाता है // 453 // स्वपि में-सुषुप्त:, विषुप्त:, निष्षुप्त: दुष्षुप्त: / सूति में-सुषूति: विषूति:, नि:पूति: दुषूति. / समान में सुषम, विषम, निष्षम, दुष्पमं / इन्हीं चारो से परे क्यो कहा ? तो अपरसमं में सकार को षकार नहीं हुआ है / इत्यादि। अर्कश्च अश्वमेधश्च–अर्काश्वमेधौ तयो: समाहार: समाहार द्वन्द्व में एकत्व एवं नपुंसकलिंग हो जाता है // 454 // अत: अर्काश्वमेधं बना। ऐसे ही क्षश्च अयस्कारश्च तक्षायस्कारौ तयोः समाहार 'तक्षायस्कार' हंसश्च मयूरश्च हंसमयूरौ तयोः समाहारः हसमयूरं, पाणी च पादौ च पाणि पादौ नयो समाहार पाणिपाद इत्यादि / उसी प्रकार से समाहार द्विगु में भी नपुंसकलिंग एकवचन हो जाता है / 455 // यथा- पञ्चाना गवा समाहारः पञ्चगो, चतुर्णा पथां समाहार: चतुष्पथि है।