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________________ कारकाणि 147 स्मृत्यर्थकर्मणि // 409 // स्मरणार्थानां धातूनां प्रयोगे वर्तमानाल्लिङ्गात् कर्मणि षष्ठी भवति / उत्तरत्र नित्यग्रहणादिह विकल्पो लभ्यते / मातुः स्मरति / मातरं स्मरति / पितुरध्येति / पितरमध्येति / इत्यादि / करोतेः प्रतियत्ने // 410 // करोते: प्रतियले गम्यमाने लिङ्गात्कर्मणि षष्ठी भवति। सतो विशेषाधानं प्रतियत्नः। एधो दकस्योपस्कुरुते / एधोदकमुपस्कुरुते / इत्यादि। हिंसार्थानामज्वरि // 411 // हिंसार्थानां ज्वरवर्जितानां धातूनां प्रयोगे कर्मणि षष्ठी भवति / चौरस्य प्रहन्ति / चौरं प्रहन्ति / चौरस्योत्क्राथयति / चौरमुत्क्राथयति / चौरस्य पिनष्टि / रुजो भङ्गे। चौरस्य रुजति / इत्यादि / अज्वरीति किं ? चौरं ज्वरयति कर्कटी। चौरस्य सन्तापयतीत्यर्थः।। - कर्तृकर्मणोः कृति नित्यम्॥४१२॥ कर्तृकर्मणोरर्थयोंनित्यं षष्ठी भवति कृत्प्रत्यययोगे। भवत: आसिका। भवत: शायिका। भुवनस्य स्रष्टा / पर्वतानां भेत्ता। तत्त्वानां ज्ञाता। इत्यादि / . स्मृति अर्थ वाले धातु के प्रयोग में षष्ठी होती है // 409 // स्मरण अर्थ वाले धातु के प्रयोग में लिंग से कर्म में षष्ठी होती है। आगे सूत्र में नित्य का ग्रहण होने से यहाँ विकल्प का कथन ग्रहण करना चाहिये। अत: द्वितीया भी हो जाती है। यथा-मातुः स्मरति, मातरं स्मरति-माता का स्मरण करता है। __ पितुरध्येति, पितरमध्येति-पिता को स्मरण करता है। करोति से प्रतियत्न अर्थ गम्यमान होने में कर्म में षष्ठी होती है // 410 // प्रतियत्न किसे कहते हैं ? विद्यमान को विशेष करना—संस्कारित करना ‘प्रतियत्न' कहलाता है। एधोदकस्य उपस्कुरुते, एधोदकं उपस्कुरुते-लकड़ी जल के गुण को ग्रहण करती है। हिंसा अर्थ वाले ज्वर वर्जित धातु के प्रयोग में कर्म में षष्ठी होती है // 411 // चौरस्य हंति, चौरं हति–चोर को मारता है। चौरस्य उत्क्राथयति, चौरं उत्क्राथयति-चोर को मारता है। चौरस्य पिनष्टि, चौरं पिनष्टि-चोर को दुःख देता है। रुज, धातु भंग अर्थ में है। चौरस्य रुजति, चौरं रुजति–चोर को कष्ट देता है। इत्यादि / सूत्र में ज्वर वर्जित ऐसा क्यों कहा ? चौरं ज्वरयति कर्कटी-ककड़ी चोर को ज्वर लाती है चोर को संतापित करती है यह अर्थ हआ। यहाँ ज्वर धातु के योग में द्वितीया हुई, षष्ठी नहीं हुई है। कर्ता और कर्म के अर्थ में कृत् प्रत्यय के योग में नित्य ही षष्ठी होती है // 412 // कर्ता अर्थ में-भवत: आसिका-आपके बैठने का स्थान। . भवत: शायिका—आपके सोने का स्थान। कर्म अर्थ में-भुवनस्य स्रष्टा—भुवन के स्रष्टा / पर्वतानां भेत्ता–पर्वतों के भेदन करने वाले। तत्त्वानां ज्ञाता-तत्त्वों के जानने वाले। इत्यादि /
SR No.004310
Book TitleKatantra Vyakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1992
Total Pages444
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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